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उत्तरस्वण्ड ]

और निराकार)। ये सनातन पुरुष हैं। सुब्रत !

उतरायणमें ही इनकी महती पूजा होती है। प्रायः छः

दक्षिणायन रहता है, इनका स्थान हिमसे आच्छादित रहा

करता है। अतः इनके-जैसा देवता न अबतक हुआ है

और न आगे होगा । बदरिकाश्रमे देवगण निवास करते

हैं। वहाँ ऋषियोंके भी आश्रम हैं। अग्निहोत्र और

वेदपाठकी ध्वनि वहाँ सदा श्रवण-गोचर होती रहती है ।

भगवान्‌ नारायणका दर्जन करना चाहिये। उनके दर्शन

करोड़ों हत्याऑका नाश करनेवाल्म है। वहाँ

*अलकनन्दा' नामवाली गङ्गा बहती हैं, उनमें स्नान

करना चाहिये। यहाँ स्नान करके मनुष्य महान्‌ पापसे

मुक्त हो जाता है । उस तीर्थे सम्पूर्ण जगतके स्वामी

* गङ्गायतरणाकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य «

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भगवान्‌ नारायण खद्‌) ही विराजमान रहते हैं।

एक समयकी बात है, मैंने एक वर्षतक वहाँ बड़ो

कठोर तपस्या की थी। उस समय भक्तोॉपर कृपा

करनेवाले भगवान्‌ नारायण, जो अविनादी, अन्तर्यामी,

साक्षात्‌ परमेश्वर तथा गरुड़के-से चिहवाली ध्यजासे

युक्त हैं, बहुत प्रसन्न हुए और मुझसे बोले--'सुश्रत !

कोई बर माँगो; देव ! तुम जो-जो चाहोगे, वह सभी

मनोरथ मैं पूर्ण करूँगा; तुम कैल्लसके स्वामी, साक्षात्‌

रुद्र तथा विश्वके पाक हो ।

तख मैंने कहा--जनार्दन ! यदि आप वर देना

चाहते हैं तो मुझे दो यर प्रदान कीजिये---मेरे हृदयमें

सदा ही आपके प्रति भक्ति बनी रहे और देवेश्वर ! भै

आपके प्रसादसे मुक्तिदाता होऊँ।

गङ्खावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य

महादेवजी कहते हैं--देवर्षियोंमें श्रेष्ठ नारद !

अब तुम परम पुण्यमय हरिद्वारका माहाल्य श्रवण करो ।

जहाँ भगवती गङ्गा यहती हैं, वहाँ उत्तम तीर्थ बताया

गया है । यहाँ देखता, ऋषि और मनुष्य निवास करते है ।

वहाँ साक्षात्‌ भगवान्‌ केशव नित्य विराजमान रहते हैं।

विद्रन्‌! राजा भगीरथ उसी मार्गसे भगवती गड्जाको

लाये थे तथा उन महात्माने गङ्गाजलका स्पर्श कराकर

अपने पूर्वजॉका उद्धार किया था।

नारद ! अत्यन्त सुन्दर गद्जाद्वारमें जो जिस प्रकार

गङ्गाजीको ले आये थे, वह सब प्रसङ्ग मैं क्रमशः सुनाता

हूँ। पूर्वकालमें हरिश्चद्र नामके एक राजा हो चुके हैं, जो

त्रिभुवने सत्यके पालक विख्यात थे। उनके रोहित

नामक एक पुत्र हुआ, जो भगवान्‌ विष्णुकी भक्तिमें

तत्पर था। रोहितका पुत्र वृक था, जो बड़ा ही धर्मात्मा

और सदाचारी था। उसके सुबाहु नामक पुत्र हुआ।

सुबाहुसे “गर' नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। एक समय

गरक कालयोगसे दुःखी होना पड़ा | अनेक राजाओंनि

चढ़ाई करके उनके देशकों अपने अधीन कर लिया । गर

कुदम्बको साथ के भृगुनन्दन और्वके आश्रमपर चले

गये। और्वने कृपापूर्वक वहाँ उनकी रक्षा को। वहीं

उनके सगर नामक पुत्रका जन्म हुआ महात्मा भार्गवसे

रक्षित होकर वह उसी आश्रमपर बढ़ने लगा। मुनिने

उसके यज्ञोपवीत आदि सब. क्षत्रियोचित्त संस्कार

कराये। अस्त्र-शासत्रों तथा वेद-विद्याका भी उसको

अभ्यास कराया ।

तदनन्तर महातपस्वी राजा सगरे और्व मुनिसे

आग्रेयास््र प्राप्त किया और समूची पृथ्वीपर भ्रमण करके

अपने शत्रु तालजड्ू, हैहय, शक तथा पारदयंदियोका

वध कर डाल्म। इस प्रकार सबको जीतकर उन्होंने धर्म-

संचय करना आरम्भ किया। राजाने अश्वमेष यज्ञका

अनुष्ठान करनेके लिये अश्च छोड़ा। वह अश्च पूर्व

दक्षिण-समुद्रके तटपर हर लिया गया और पृथ्बोके भीतर

पहुँचा दिया गया । तब राजाने अपने पुत्रॉक्त्रे लगाकर सब

ओरसे उस स्थानको खुदवाया । महासागर खोदते समय

वे अश्वको तो नहीं पा सके, किन्तु वहाँ तपस्या करनेवाले

आदि पुरुष महात्मा कपिलूपर उनकी दृष्टि पड़ो। से

उतावललीके साथ उनके निकट गये और जगल्पभु

कपिलको लक्ष्य करके कहने लगे--'यह चोर है।'

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