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और गुरु एवं देवताके कोपसे मनुष्यको पाँच

प्रकारके उन्माद होते हैं। वे वातज, कफज,

पित्तज, सनिपातज और आगन्तुक कहे जाते हैं।

भगवान्‌ रुद्रके क्रोधसे अनेक प्रकारके देवादि ग्रह

उत्पन हुए। वे ग्रह नदी, तालाब, पौखरे, पर्वत,

उपवन, पुल, नदी-संगम, शून्य गृह, बिलद्वार

और एकान्तवर्ती इकले वृक्षपर रहते और वहाँ

जानेवाले पुरुषोंको पकड़ते हैं। इसके सिवा वे

सोयी हुई गर्भवती स्त्रीको, जिसका ऋतुकाल

निकट है उस नारीको, नंगी औरतको तथा जो

ऋतुस्लान कर रही हो, ऐसी स्त्रीको भी पकड़ते

हैं। मनुष्योंके अपमान, वैर, विघ्न, भाग्यमें

उलट-फेर इन ग्रहोंसे ही होते हैं। जो मनुष्य

देवता, गुरु, धर्माद तथा सदाचार आदिका

उल्लक्घन करता है, पर्वत और वृक्ष आदिसे

गिरता है, अपने केशोंको बार-बार नोचता है तथा

लाल आँखें किये रुदन और नर्तन करता है,

उसको “रूप '-ग्रहविशेषसे पीड़ित जानना चाहिये।

जो मानव दद्वेगयुक्त, दाह और शूलसे पीड़ित,

भूख-प्याससे व्याकुल और शिरोरोगसे आतुर

होता और “मुझे दो, मुझे दो'--यों कहकर

याचना करता है, उसे 'बलिकामी ' ग्रहसे पीड़ित

जाने। स्त्री, माला, स्नान और सम्भोगकी इच्छासे

युक्त मनुष्यको 'रतिकामी' ग्रहसे गृहीत समझना

चाहिये॥ १--८॥

व्योमव्यापी, महासुदर्शनमन्त्र, बिटपनासिक,

पातालनारसिंहादि मन्त्र तथा चण्डीमन्त्र--ये ग्रहोंका

मर्दन-ग्रहपीड़ाका निवारण करनेवाले हैं*॥९॥

(अब ग्रहपीडानाशन सूर्यकी आराधना

बतलाते हैं-) सूर्यदेव अपने दाहिने हाथोंमें

पाश, अङ्कुश, अक्षमाला और कपाल तथा बायें

हार्थोमिं खट्वाङ्ग, कमल, चक्र और शक्ति धारण

करते है । उनके चार मुख हैं। वे आठ भुजा और

बारह नेत्र धारण करते है । सूर्यमण्डलके भीतर

कमलके आसनपर विराजमान हैं ओर आदित्यादि

देवगणोंसे धिरे हुए है । इस प्रकार उनका ध्यान

और पूजन करके सूर्योदयकालमे उन्हें अर्घ्य दे।

अर्ध्यदानका मन्त्र इस प्रकार है-श्वास (य),

विष (ओं), अग्रिमान्‌ रण्डी (र्‌+ओं), इल्लेखा

(ही )-ये संकेताक्षर हैं। इन सबको जोड़कर

शुद्ध मन्त्र हुआ--) “यीँ री ऐं हीं कलशार्कायभूर्भुवः

स्वरों ज्वालिनीकुलमुद्धर ।' ॥ १०--१२ ३ ॥

ग्रहोंका ध्यान

सूर्यदेव कमलके आसनपर विराजमान रै ।

उनकी अङ्गकान्ति अरुण है । वे रक्तवस्त्र धारण

करते है । उनका मण्डल ज्योतिर्मय है। वे उदार

स्वभावके हैं और दोनों हाथोंमें कमल धारण

करते हैं। उनकी प्रकृति सौम्य है तथा सारे अङ्ग

दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। सूर्य आदि सभी

ग्रह सौम्य, बलदायक तथा कमलधारी हैं। उन

सबका वस्त्र विद्युत्‌ पुञ्जके समान प्रकाशमान है ।

चन्द्रमा श्वेत, मङ्गल और बुध लाल, बृहस्पति

पीतवर्ण, शुक्र शुक्लवर्ण, शनैश्चर काले कोयलेके

समान कृष्ण तथा राहु और केतु धूमके समान

* *सहखार हुं फर्‌'--यह " सुदशने ' या 'महासुदर्शनमन्त्र' है। यह व्यापक प्रभावशाली होनेके करण ' व्योमव्यापी ' कहां गया है।

*बिटपनासिक ' शब्द नूसिंहरूपको उग्रताका सूचक दै । बड़े-बड़े वृक्ष उनकी नासिकाके अन्तर्गत आ जाते है । पृथ्वौ ओर पाताललोकमोें

उपका प्रताप कैला हुआ है तथा पाताललोकमें उनका प्रादुर्भाव हुआ धा, इसलिये भी उनको 'पातालतारसिंह' कहते है ।

*पातालनारसिंहमन््र' इस प्रकार है--

“उग्र यों महाविष्णुं ज्वलन्त॑ सर्वतोभुखम्‌ । नृसिंहँ भीषणं भदरं मृत्युमृत्युं नमास्यहम्‌॥'

दुर्गासप्ठशतीके सभी मन्त्र यहाँ " चण्डीपन्त्र' के वामसे अभिहित हुए हैं। 'नारसिंहाधा 'के आदि पदसे 'वीरनृसिंह' तथा 'सुदर्शब-

नृसिहादि' मन समझने चाहिये। 'वौरतृसिंह-मन्ज' इस प्रकार है--' ॐ नमो भगवते वीरनृसिंहाय ज्वालामालापिनद्धाज्ञायाग्रिनेत्राव

सर्यभूतविनाशनाय दह दह पच पच रञ्च रक्ष हीं हों फट्‌ स्वाहा।' इसका एक दूसरा रूप इस प्रकार भी है--“3# नमो भगवते यौरनृसिंहाय

दोष्तर्दष्टाधाफ्रिनित्राय सर्वभूतविनाशनाय सर्वज्वरं विनाशय हन हन दह दह पच षच बन्ध बन्ध रक्ष रक्ष हुं फट्‌

स्वाहा।' ' सुदर्शन- नृिंहमन्त्र इस प्रकार ै-' ॐ> सहसखारज्वालावर्तिने क्षौ हन हने हुँ फट्‌ स्वाहा ।

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