६६२
संश्िप नारदपुराण
नोक
"भगवान् विष्णु ही जिसके जल हैं, उस | है । इसीको फल्गुतीर्थं कहते हैं। मुण्डपृष्ठ पर्वतके
फल्गुतीर्थे आज मैं स्नान करता हूँ। इसका
उद्देश्य यह है कि पितरोँको विष्णुलोककौ और
मुझे भोग एवं मोक्षकी प्राप्ति हो।'
फल्गुतीर्थमें स्नान करके मनुष्य अपने गृह्मसूत्रमें
बतायी हुई विधिके अनुसार तर्पण एवं पिण्डदानपूर्वक
श्राद्ध करे। तत्पश्चात् शिवलिङ्गरूपमें स्थित ब्रह्माजीको
नमस्कार करे
नमः शिवाय देवाय ईशानपुरुषाय च।
अघोरवापदेवाय सद्योजाताय शम्भवे ॥ ९०॥
“ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा
सद्योजात--इन पाँच नामोंसे प्रसिद्ध कल्याणमय
भगवान् शिवको नमस्कार है ।'
इस मन्त्रसे पितामहको नमस्कार करके उनकी
पूजा करनी चाहिये । फल्गुतीर्थे स्नान करके यदि
मनुष्य भगवान् गदाधरका दर्शन और उनको
नमस्कार करे तो वह पितरोंसहित अपने- आपको
वैकुण्ठधाममें ले जाता है। (भगवान् गदाधरको
नमस्कार करते समय निग्राह्भित मन्त्र पढ़ना
चाहिये- )
ॐ नमो वासुदेवाय नमः संकर्पणाय च।
प्रदयु्रायानिरुद्धाव श्रीधराय च विष्णवे ॥ ९२-९३॥
"वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-
इन चार व्यूहोंवाले सर्वव्यापी भगवान् श्रीधरको
नमस्कार है।'
पाँच तीर्थो स्नान करके मनुष्य अपने
पितरोंकों ब्रह्मलोकमें पहँचाता है। जो भगवान्
गदाधरको पाँच तोर्थोके जलसे स्नान कराकर
उन्हें पुष्य और वस्त्र आदिसे सुशोभित नहीं
करता, उसका किया हुआ श्राद्ध व्यर्थ होता है।
नागकूट, गृश्रकूट, भगवान् विष्णु तथा उत्तरमानस-
इन चारोंके मध्यका भाग ' गयाशिर" कहलाता
नीचे परम उत्तम फल्गुतीर्थं हैं। उसमें श्राद्ध आदि
करनेसे सब पितर मोक्षको प्राप्त होते हैं। यदि
मनुष्य गयाशिरतीर्थमे शमीपत्रके बरावर भी
पिण्डदान करता है तो वह जिसके नामसे पिण्ड
देता है, उसे सनातन ब्रह्मपदको पहुँचा देता है ।
जो भगवान् विष्णु अव्यक्त रूप होते हुए भी
मुण्डपृष्ट पर्वत तथा फल्गु आदि तीर्थोके रूपें
सबके सामने अभिव्यक्त हैं, उन भगवान् गदाधरको
मैं नमस्कार करता हूं । शिला पर्वत तथा फल्गु
आदि रूपमे अव्यक्तभावसे स्थित हुए भगवान्
श्रीहरि आदिगदाधररूपसे सबके समक्ष प्रकट
हुए हैं।
तदनन्तर धर्मारण्यतीर्थको जाय, जहाँ साक्षात्
धर्म विराजमान हैं। वहाँ मतड्भवापीमें लान करके
तर्पण और श्राद्ध करें। फिर मतड्े श्रके समीप
जाकर उन्हें नमस्कार करते हुए निम्नाद्लित मन्त्रका
उच्चारण करे-
प्रमाणं देवता: शम्भुलोंकपालाश्ष साक्िणः।
पयागत्य पमतङ्गस्मिन् पितृणां निष्कृतिः कृत ॥ १०१-१०२॥
"सब देवता और भगवान् शङ्कर प्रमाणभूत हैं
तथा समस्त लोकपाल भी साक्षी हैं। मैंने इस
मतद्गतीर्थमे आकर पितरोंका उद्धार किया है--उनका
ऋण चुकाया दै ।'
पहले ब्रह्मतीर्थे, फिर ब्रह्मकृपमें श्राद्ध
आदि करे। कूप और यूके मध्यभागमें श्राद्ध
करनेवाला पुरुष पितरोंका उद्धार कर देता है।
धर्मे श्वर धर्मको नमस्कार करके महाबोधि वृक्षको
प्रणाम करे। मोहिनी! यह दूसरे दिनका कृत्य
मैंने तुम्हें बताया है। स्नान, तर्पण, पिण्डदान,
पूजन और नमस्कार आदिके साथ किया हुआ
श्राद्धकर्म पितरोंकों सुख देनेवाला होता है।
#+ढ> 48,००५