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भवन निर्माण वणन | [ ४११

सेनापतेगू हस्यापि चातुवंण्यस्य चान्तरे ।

वासाय च गृहं कायं राजपुज्येषु सवेदा ।३१

अन्तरप्रभवानाञ्च स्वपितु ग्रे हमिष्यते ।

तथा हस्तशत्तादद्ध गदितं वनवासिनाम्‌ ।२२

सेनापतेनृपस्यापि सप्तत्यासहितेऽन्विते ।

चतुदंशहते व्यासे गालान्यासः प्रकीतित: ३३

पञ्चरत्रिगान्विते तस्मिन्नलिन्दः समुदाहनः ।

तथा षट्‌ त्रिणद्धस्ता तु सप्ताह गुलसमन्विता ।३४

विप्रस्य महती शाला न दध्यं परतो भवेत्‌ ।

दगा ङ्ख.-लाधिका तद्वत्‌ क्षत्रियस्य न विद्यते ।३५

पोडण से लेकर इति पर निश्चय ही अन्नेवे क्षत्रियो का भवन

होता है | दर्शांग से--अष्ट भाग से ओर त्रिभागे पादिक होता है ।

ब्राह्मणादि की दीर्घता अधिक प्रणल्त होती है-ऐसा कहते हैं । सेनापति

और नृप के भी गृहो में अन्तर होता टै ।२६-३०। नृप के निवास का

गृह तथा भाण्डागार दोनों का निर्माण करना चाहिए सेनापति का ग्रह

और चारों वर्णो वालोंका य्रूह अन्तरमें ही होना आवश्यक है । निबास

के लिए सवदा राज पूज्यो मे गृह करना चाहिए ।३१। जिनका अन्तर

में प्रभव हो बनक्रो अपने पिता का ही ग्रह अभीष्ट होना चाहिए । वन

वासियों का ग्रह सौ हाथ का आध्रा भाग कहा गया है ।३२। सेनापति

का भी जो कि राजाका होता है, सप्तति (मत्तर)के सहित एवं अन्वित

तथा चनुर्वत व्यास के हृत होने पर शाला को कीत्तित किया गया है।

उसके पञ्च त्रिशान्वित होने पर यह अलिन्द कहा गया है तथा छत्तीस

हाथ वाली और सात अगृलों से समन्वित विध्र की महती शाला होनी

है । पर से उसकी दीर्घता नहीं होनी चाहिए । उसी भाँति दश अगुल

अधिक क्षत्रिय की नहीं होती है ।३३-३५।