१६० |] [ मत्स्य प्राण
यदि मेरे परम प्रिय अविमुक्त क्षोश्र में एकं बार प्राप्त हो जाबे तो फिर
उससे कभी भी निकल कर नहीं जाना चाहिए । वह पुरुष भी मेरे बद
को प्राप्त हो जाया करता है--इसमें कुछ भी विचार करने की आब-
ज्यकता नहीं है ।२४। वस्त्रप्रद, रुद्र कोटि, सिद्धं श्वर महालय, गोकर्ण,
रुद्रकर्ण, सुपर्णाक्ष, अमर महाकाल वायावरोहण ये स्थल भी दोनों
सन्ध्याओं के सान्निध्य होने से परम पवित्र स्थल हैं ।२५। कालिञ्जर
वन, शंककर्ण-स्थलेक्वर ये स्थल भी पवित्र हैं । हे श्रिये ! मेरे सान्निध्य
होने के कारण से ही ये पवित्र होते हैं । हे वरारोहे! अविमुक्त में त्रिस
न्ध्य डै--इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।२६-२७। हरिश्चन्द्र परभ गृह्य
है और आम्रातकेश्वर भी गोपनोय है । जलेश्वर गृह्य है तथा श्रीपर्वत
भी उसी भाँति गुह्य स्थन होता है ।२८। ।
महालयं तथा गुह्य कृमि चण्डेश्वरं शुभ् ।
गुह्यातिगुह्य केदारं महाभेरवभमेव च ।२९.
अष्टावेतानि स्थानानि सान्निध्याद्धि ममप्रिये ! ।
अविमक्त वरारोहे ! त्रिसन्ध्यं नाश्रसंणयः ।३०
यानि स्थानानि श्र यन्तेत्रिषुलोकेषु सूत्रते ! ।
अविम्क्तस्य पादेषु नित्यंसन्निहितानिवे ।३१
अथोत्तरां कथां दिव्यामविमृक्तस्य शोभने ।
कन्दोरक्ष्यति मापात्म्य मृषीणां भावितात्मनाम् ।३२
महालय उसी भाति गुह्य और कमि चण्डेश्वर परम शुभ है ।
गुह्य से भी अधिक गुह्य केदार तथा महाभैरव है ।२६। ये आठ स्थान
हे श्रिये ! मेरे ही सान्निध्य सेह वरारोहे ! अविमुक्त में त्रिसन्ध्य रै--
इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।३०। हे सुव्रते ! तीनों लोकों मे.जो
भी स्थान सुने जाते हैं वे सभी अविमुक्त क्षोत्र के पदों में नित्य ही
सन्निहित रहा कर्ते हैं। इसके अनन्तर दिव्य उत्तर कथा जोकि अवि-