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+ राजा उत्तमका चरित्र तथा अनप यन्तन्तरक्रा बर्णन*

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ज्ञाता हैं। में जिस किसी यज्ञर्में जाता हूँ, रक्षोघ्न

मन्त्रोंका पाठ करके वह मुझे दुर भगा देता हैं।

मन्ब्रोंद्राय उसके उच्चाटन करनेसे हमलोग भूखे

रह जाते हैं। ऐसी दशापें हम कहाँ जायें। प्रायः

सभी यन्नो वह ऋत्विज बना करता है। इम्रीलिने

हमने उसके सामने यह निप्र छदा किया हैं

क्योंकि कोई भी पुरुष पत्नीके बिना यज्ञ-कर्म

करमेंके योग्य नहीं रहतां। राजन्‌! मैं आपका

ब्रिनीत सेवक हूँ, आपके सज्यकी प्रजा हूँ; अत

आप अपने किसी कार्यके लिये आज्ञा देकर

मुझपर कृपा कीजिये।

राजाने कहा--राक्षस! तुमे पहले कह चुके

हो कि हम पनुष्यके स्वभावको खा जाते हैं; अतः

टमं हुमसे जो काम कराना चाहते हैं, उसे सुनो।

टु इस ब्राह्मणीकों दुष्टताकों भक्षण कर लो,

जिससे यह विनयशील हो जाय। इसके बाद इसे

इसके भश्में पहुँचा आओ। इतना कर देनेपर मँ

समझूँगा कि तुमने अपने धमर्‌ आये हुए मुझ

अतिधिका सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर दिया।

राजाके यों कहनेपर वह राक्षस अपनों मायारे

ब्राह्मणीके शरीरपें प्रवेश कर गया और अपनी

शक्तिसे उसके दुष्ट स्वभावको खा गवा । फिर तो

ब्राह्मणकी पत्त भयंकर दुष्टतासे मुक्त हौ गयी

और राजासे बोली--' महाराज! मुझे अपने ही

फ फलसे अपने महात्मा स्वामीसे विलग

होना पड़ा हैं। यह निशाचर तो उसमें निभित्तमात्र

बना है। न इसका दोष है, = मेरे महात्मा पतिका

८ी५ है; सब दोष मेरा ही है। क्योकि मनुष्यकों

अपी ही करनोंका फल भोणना पुतला है।

पूर्नजन्ममें मैंने किसीक। वियोग रूगया होगा, बह

आज मुझपर भी आ पड़ा है! इसमें दुस्रेका क्‍या

दोष हैं।'

मैं इस ब्राह्मणीको इसके स्वामौः घेरपर पहुँचा

आता हूँ; इसके सिवा और भी सदि मेरे योग्य

कोई कार्य हों तो उसके लिये आज्ञा दीजिये।

राजाने कद्ा--निशाचर ! यह कार्य हो जानेपर

मैं स्रमझुँगा कि तुमने मेरा सारा कार्य सिद्ध कर

दिया। वीर! यदि किसी कार्यक्े समय मैं तुम्हारा

स्मरण करूँ तो तुम मेरे पास आ जाना।

" बहुत अच्छा ' कहकर गक्षेसने उस ब्रा्यणपत्रीको,

जो दुता दूर दौ जानेसे अब अच्छे स्वभावकी हो

गवी थीं, ले जाकर उसके पतिक घरपें पहुँचा

दिया। राजा भी उसे भेजकर मत-ही-मन इम

प्रकार चिन्ता करने लगे-' अब मैं अपने विंधयमें

क्या करूँ, क्या करनेसे मेरा भला होगा । पहामना

महर्भिने मुझे अर्ध्यक्े अबोग्य च्तलाया है, यहः तो

मेरे लिये बड़े कटको वात है। अब मैं क्या करूँ।

पह्नीकों तो मैंने त्याग दिया, अब उसका पता कैसे

लगे अथवा उन ज्ञानचंक्षु महर्षिसे ही चलकर

पृछूँ।' यों विचारकर राजा फिर रथपर आर्द्‌ हुए

और उस स्थानपर गये, जहाँ वें त्रिकालवेत्ता

धर्मात्मा महामुनि रहते थे। रथसे उत्तरकर उन्होंने

मुनिके पास जा उन्हें प्रणाम किया और संक्षससें

पिलने, जआह्मयणीके दिखायी देने तथा ठसकौ

दुष्टताके दूर होने आदिका सब चृत्तान्त ठीक-ठीक

कह सुनाया।

ऋषिने कहा--राजन्‌ | तमने जौ कुछ किया

है, वह सब मुझे पहलेसे ही पालूम हो चुका है ।

मेरे पास तुम जिस कार्यसे आये हो, चह भी

मुझेसे छिपा नहीं है। मनुष्योंके लिये पत्नी धर्म,

अर्थ एलं कापकी रिंद्धिका कारण हैं। तुमने

उसका त्याग करके विशेषतः शर्मको भी त्था]

दिया है। ग़जन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, चैश्य अथवा

शुद्र कोई भी क्‍यों न हो, पत्नीके न होनेपर कह

गश्चस बोला--राजन्‌। आपको आज्ञाके अनुमार | अपने कर्मानुष्ठानके योग्य नहीं रहता। ग़ुमने अपनी