ब्राह्मपर्वं ]
* भगवान् सूर्यके निमित्त गृह एवं रथ आदिके दानका माहाक्त्य °
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सभी भोगोंका परित्याग कर एक वर्षतक प्रत्येक सप्तमीको
उपवास करतौ और वर्षके अन्ते गन्धादि पदार्थ निश्षुभारकको
निवेदित करती है तथा मगकी लिर्योको भोजन कराती है, वह
गन्धर्वसे सुशोभित विचित्र दिव्य महायानद्वारा सूर्यलोकमें
जाकर अनेक सहस वर्षौतक निवास करती है। यहाँ यथेष्ट
सभी भोगोंका उपभोग कर इस लोकम आनेपर गजाको
निक्षुभार्क-ब्रतको करती है, वह परमपद प्राप्त करती है। एक
वर्षतक परम श्रद्धाके साथ इस ब्रतको सम्पन्न कर वर्षात्तमें
भोजक-दम्पतिकों भोजन कराये और गन्ध-माल्य, सुन्दर यस्व
आदिसे उनकी पूजा करे । ताप्रमय पात्रमें हरिसे अलंकृत
निक्षुभा्ककी सुवर्णमयी प्रतिमा भोजक-दम्पतिकों निवेदित
करे । देवौ निक्षुभा भोजकी हैं और अर्क भोजक हैं। अतः उन
पति-रूपमें वरण करती है। दोनॉकी विधिवत् श्रद्धापूर्वक पूजा करनी चाहिये।
जन् ! जो स्त्री पाप और भयका नाश करनेवाले इस (अध्याय १६६-१६७)
कामप्रद स्त्री-ब्रतका वर्णन
सुमन्तु मुनि बोले--राजन् ! जो स्त्री कार्तिक मासके
दोनों पक्षोकी षष्ठौ एवं सप्तमो तिथियोंमें क्षमा, अहिसा आदि
नियमोका पालन कर, संयतेन्दिय होती हुई एकभुक्त रहती एवं
उपवास करती है और गुड़-घीसे युक्तं दालि-अन्न श्रद्धाके
साथ भगवान् सूर्यको अर्पित करती है तथा करवीरक पुष्प
और घृतके साथ गुग्गुल निवेदित करती है, वह स्र इन्द्रनीलके
समान सार्वकाल्कि विमानपर बैठकर दस स्थख वर्षोतक
सूर्योकये आनन्दमय जीवन व्यतीत करती है । सभी ल्त्रेकॉके
भोगोंको भोगकर क्रमशः इस लोकमें आकर जन्म ग्रहण करतो
तथा अभीप्सित पतिको प्राप्त करती है। इस प्रकार वर्षभरके
सभी ब्रतोंकी विधि समान कही गयी है। एक समय भोजन
और उपवासका समान ही फल होता है। क्षमा, सत्य, दया,
दान, ज्ञौच, इन्द्रियनिग्रह, सूर्यपूजा, अग्रि-हवन, संतोष तथा
अचौर्यत्रत-ये दस सभी व्रतोंकि लिये सामान्य
(आवश्यक) धर्म (अङ्ग) हैं।
इसी तरह मार्गशीर्ष आदि मासोंपें निर्दिष्ट नियमोका
पालन करते हुए सूर्यकी पूजा करनेसे अभ्युदयक्ी प्राप्ति होती
है, साथ ही सहस्रौ वर्षोतक सूर्यलोकका सुख भोगकर वह
नारी अन्तमें राजपत्नी बनती है।
जो कोई भी पुरुष या स्त्री अथवा नपुंसक भक्तिपूर्वक
भगवान् सूर्यकी उपासना करते हैं वे सभी अपने मनोऽनुकूल
फल प्राप्त करते है। (अध्याय १६८)
भगवान् सूर्यके निमित्त गृह एवं रथ आदिके दानका माहात्म्य
सुमन्तु मुनि बोल्ले--राजन् ! अपने वितके अनुसार
पिट्टी, ख्कड़ी, पत्थर तथा पके हुए ईंटोंसे जो मठ या गृहका
निर्माण कर उसे सभी उपकरणोंसे युक्त करके भगवान् सूर्यके
लिये समर्पित करता है वह सभी का्मनाओंको प्राप्त कर छेता है ।
माघ मासम तद्भधारहित होकर एक -भुक्तवत करें और मासके
अन्तमें एक रथका निर्माण करे जो विचित्र वसे सुझोभित,
चार श्वेत अश्वोंसे अलंकृत, श्वेत ध्वज, पताका एवं छतर,
चामर, दर्पणसे युक्त हो। उस रथपर ठाई सेर चावलके
चूर्णसे सूर्यकी प्रतिमाका निर्माण कर उसे संज्ञा देवीके साथ
रथके पिछले भागमें (जह्य रथी बैठता है) स्थापित कर शाङ्खं,
भेरी आदि ध्वनियोंके साथ सत्रिमें राजमार्गमें उस रथको
घुपाकर क्रपदीः धीरि-धरि सूर्य-पन्दिरय ठे जाय। वहाँ
जागरण एवं पूजा करे तथा दीपक एवं दर्पण आदिसे अलंकृत
कर रात्रि व्यतीत करे। प्रातः मधु, क्षीर और घृतसे ठस
प्रतिमाको खान कराकर दीन, अन्ध एवं अनाधोंको अपनी
शक्तिके अनुसार भोजन कराकर दक्षिणा दे और संवाहनसे
युक्त रथ भगवान् भास्करको निवेदित करें तथा अपने
बन्धुओंके साथ भोजन करे ।
धनिष्यपुराणये पाटन कुछ अपा कय है, जिसे हेमाद्रिके आधारप यहाँ दिया जा रहा है--
जो नारी एक वर्षतक संयतेन्द्रिय होकर सप्तपीको निशहार चत रखती है ओर जिसको कणिक मुवर्णकप हों ऐसे चाँदीके कमलके, पिषटमय गजका
निर्माणकर उसको पौटपर स्थापित कर वर्षान्ते उसका दान करतो है, उसके मधी पाप न हो जाते हैं। रोप पूजन पूर्वोक्त विधिसे ही करना चहिये ।
इससे वह पुरुषकूपसे सभी सौरादि सोके धमण करते हुए पृथ्वीस्लोकमें उधकर करक तथा रूपसम्यश्न महासती राजाको पतिरूपमें परार करनी है ।