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ततो गच्छेत राजेन्द्र पिंगलेश्वरपुत्तमरम्।
ततर स्नात्वा नरो राजजाहालोके महीयते॥ ३५॥
तत्रोपवास यः कृत्वा पश्येत पिगलेश्चरम्।
सम्जन्मकृत॑ पाप॑ हित्वा याति ्िवालयप्॥३६॥
राजेन्द्र! इन सवके वाद उत्तम पिङ्गलेश्वर तीथं में जाना
चाहिये। राजन्! वहाँ स्नाने करके मनुष्य ब्रह्मलोक में पूजित
होता है। जो वहाँ उपवास करके पिंगले श्वर का दरशन कता
है, वह सात जन्मों में किये पापों से मुक्त होकर शिवलोक में
जाता है।
ततो गच्छेत राजेद्र अलितीर्घमनुत्तपम्।
उपोष्य रजनीमेकां नियतो नियताशन:॥ ३७॥
अस्य तीर्थस्य माहात्प्यान्युच्यते ब्रह्महत्यया
राजेन्दर! बहाँ से उत्तम अलिका तों में जाना चाहिये।
वहाँ एक रात्रि उपवास करके संयत रहते हुए नियमपूर्वकं
सात्विक आहार करने से इस तीर्थ के माहात्म्य के कारण
ब्रह्महत्या (के पाए) से मुक्त हो जाता है।
एतानि तब संक्षेपात्माधान्यात्कथितानि च॥ ३८॥
न शक्या विस्तरा संख्या तीर्थेषु पाण्डव।
हे पाण्डुपुत्र! मैंने जो ये तीर्थ कहे हैं वे संक्षेप में खास-
खास ही बताये हैं। विस्तापपूर्वक इन नर्मदा-तीर्थों की
संख्या का वर्णन नहीं किया जा सकता।
एषा एवित्रा विपुला नदी त्ैलोक्यविश्वुता॥ ३९॥
नर्मदा सरितां शरेष्ठा महादेवस्य वल्लभा।
पनसा संस्मरेद्यस्तु नर्पदां वै युधिष्ठिर॥४०॥
चाद्रायणशतं साग्रं लभते नात्र संशयः।
यह पित्र तथा स्वच्छ जलवाली नर्मदा नदी तीनों लोकों
में विख्यात है। नर्मदा सभी नदियों में श्रेष्ठ है और महादेव
को अतिप्रिय है। युधिष्ठिर! जो मन से भी नर्मदा का स्मरण
करता है, वह सौ चान्द्रायण व्रत करने से भी अधिक फल
प्राप्त करता है, इसमें संशय नहीं है।
अग्रहयानाः पुरुषा नास्तिक्यं घोरमाश्रिता:॥ ४ १॥
पतन्ति नरके घोर इत्याह परमेश्वर:।
मर्पदां मेके नित्यं स्वयं देवो पहेशवरः।
तेन पुण्या नटी जेया ग्रह्महत्यापहारिणो॥ ४२॥
परन्तु जो श्रद्धाविहोन तथा घोर नास्तिकता का आश्रव
लेते हैं वे भीषण नरक में गिरते हैं, ऐसा परमेश्वर शंकर ने
कहा है। यह भी कि स्वयं देव महेश्वर सदा नर्मदा का सेवन
कू्ममहापुराणम्
करते हैं, अत: इस पवित्र नदौ को पुण्यकारक जानना
चाहिए् जो ब्रह्महत्या जैसे पापों को दूर करने वाली है।
इति श्रीकूर्पपुराणे उचा नर्पदापाहात्ये
इिकलारिजोउध्याय:॥ ४ २॥
त्रिचत्वारिशो5ध्याय:
(नर्षदा नदी के तीर्थो का माहात्प्य)
ब्रह्मणा निर्मितं स्थानं तपस्तपुं द्विजोत्तमा:॥ २॥
सूतजौ ने कहा- तीनों लोकों में विख्यात यह उत्तम
नैमिष नामक तीर्थं महादेव को परम प्रिय तथा महापातकों
को नष्ट करने वाला है। द्विजोत्तमो! ब्रह्माजी ने दस स्वान का
निर्माण महादेव का दर्शन करने कौ इच्छा वाले उन ऋषियों
के लिये को है, जो वहाँ तपस्या करना चाहते हैं।
परीवयोऽत्र ये विप्रा वसिष्ठाः ऋतवस्तथा।
भरूगवो5द्विरस: पूर्व ब्रह्माणं कपलोद्धवम्॥३॥
समेत्य सर्ववरदं चतरत चतुर्मुखम्
पृच्छनि प्रणिपत्यैनं विश्वकर्माणमव्यवम्॥ ४॥
ब्राह्मणो । यहां पर पूर्वं काल में मरीचि, अत्रि, वसिष्ठ.
क्रतु, भृगु तथा अंगिरा के वंश में उत्पन्न जो ऋषिगण थे,
उन्होंने सभी प्रकार का वर देने वाले, कमलोद्धव, चतुर्मूति
चतुर्मुख, अव्यय, विश्वकर्मा ब्रह्मा को प्रणाम कर उनसे
पृष्टा
षट्कुलीया ऊः
भगव्देवमीशानं तमेयैकं कपर्दिनम्
केनोपायेन पश्यामों बूहि देव नपस्तव॥ ५॥
पटकुलोत्पन्न ऋषियों ने पूछा- हे भगवन्! हे देव! हम
किस उपाय से अद्वितीय तेजस्वी, कपर्दी, ईशान देव का
दर्शन करें (यह बताने कौ कृपा करें)।
ब्रह्नोवाच
स्रं सहस्रमासब्व॑ वाड्यनोदोषवर्जिजिता:।
देशक् व: प्रवक्ष्यामि यस्मिच्देशे चरिष्यथा॥६॥