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* पुराणं परमं पुण्यं अविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ ॥\

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

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चित्रा नक्षत्रसे युक्त सोमवारसे आरम्भ कर सात

सोमवारतक नक्तत्रत करके अन्तमे चन््रमाकी चाँदीकी प्रतिमा

बनाकर, चाँदी अथवा कासिके पात्रमें स्थापित कर श्वेत पुष्प,

श्रेत वख आदिसे उनका पूजन करे । दध्योदनका भोग लगाकर

जूता, छता तथा दक्षिणासहित वह मूर्ति ब्राह्मणको प्रदान करे ।

यथाशक्ति ब्राह्मण-भोजन कराये, इससे चन्द्रमा प्रसन्न होते हैं।

उनके प्रसन्न होनेसे दूसरे सभी ग्रह प्रसन्न हो जाते हैं।

स्वाती नक्षत्रसे युक्त भौमवारसे आरम्भ कर सात

भौमवारतक नक्तत्रत करके अन्तमें सुवर्णकी भौमकी प्रतिमा

बनाकर ताम्रपात्रमें स्थापित कर रक्त चन्दन, रक्त वस्र आदिसे

पूजनकर घीयुक्त कसारका भोग लगाकर सब सामग्री

ब्राह्मणको दे। इसी प्रकार विशाखायुक्त बुधवारकों बुघका

पूजन कर उद्यापनमें स्वर्णमयी बुघकी प्रतिमा ब्राह्मणक प्रदान

कर दे। अनुराधा नक्षत्रसे युक्त बृहस्पतियारके दिनसे सात

गन्ध, पीत पुष्य, पीत वश्व, यज्ञोपवीत आदिसे उनकी पूजा

करके खाँड़का भोग लगाकर सब सामग्री एवं मूर्ति ब्राह्मणको

प्रदान कर दे। इसी प्रकार ज्येष्ठायुक्त शुक्रवारको ब्रतका

आरम्भ कर सात शुक्रवारतक नक्तव्रत करके अन्तमे सुवर्णकी

झुक्रकी प्रतिमा बनाकर चाँदी अथवा बाँसके पात्रमें स्थापित

कर श्वेत चन्दन, श्वेत वस्र आदिसे पूजन कर घी और पायसका

भोग लगाये । सब पदार्थ एवं प्रतिमा ब्राह्मणको प्रदान करे ।

इसी विधिसे मूल नक्षत्रयुक्त शनिवारसे आरम्भ कर सात

दानिवारतक नक्तत्रत कर्के अन्तमें शनि, गहु और केतुका

पूजन करना चाहिये और तिल तथा घीसे ग्रहोंके नाम-मन्त्रोंसे

हवन करके नवप्रहोंकी समिधाओंसे प्रत्येक प्रहको क्रमसे एक

सौ आठ अथवा अप्टाईस बार आहुति दे। शनैश्षर आदिकी

प्रतिमा लौह अथवा सुबर्णकी बनाये। कुदारात्रकाय भोग

लरूगाकर सब सामग्रीसहित वे प्रतिमाएँ ब्राह्मणको प्रदान कर

दे। इससे सभी ग्रहोंकी पीड़ा शान्त हो जाती है। इस ब्रतकों

विधिपूर्वक करनेसे कूर ग्रह भी सौम्य एवं अनुकूल हो जाते

हैं और उसे शान्ति प्रदान करते है ।

(अध्याय ११२-११३)

वक

झनैश्चर-ब्रतके प्रसंगे महामुनि पिष्पल््रदका आख्यान

भगवान्‌ श्रीकृष्ण कहते है--राजन्‌ ! एक यार

त्रेतायुगमें अनायृष्टिके कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया । उस

घोर अकालमें कौशिकमुनि अपनी सरी तथा पूत्रॉंके साथ

अपना निवास-स्थान छोड़कर दूसरे प्रदेशमें निवास करने

निकल पड़े। कुटुम्बक भरण-पोषण दूभर हो जानेके कारण

बड़े कष्टसे उन्होंने अपने एक बालकको मार्गमें ही छोड़ दिया ।

वह बालक अकेला भूख-प्याससे तड़पता हुआ रोने खगा ।

उसे अकस्मात्‌ एक पीपलका वृक्ष दिखायी पड़ा। उसके

समीप ही एक बावड़ी भी थौ । बालकने पीपलके फलके

खाकर ठंडा जल पी लिया और अपनेको स्वस्थ पाकर वह

कहीं कठिन तपस्या करने छगा तथा नित्यप्रति पीपल्के

फलॉको खाकर समय व्यतीत करने लूगा। अचानक यहाँ एक

दिन देवर्षिं नारद पधारे, उन्हें देखकर बालकने प्रणाम किया

और आदरपूर्वक बैठाया। दयालु नारदजी उसकी अवस्था,

विनय और नप्नताकों देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने

बालकका मौञ्जीवन्धन आदि सब संस्कार कर पद-क्रम-

रहस्यसहित वेदका अध्ययन कराया तथा साथ ही द्वादशाक्षर

वैष्णयमन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का उपदेश

दिया।

अब यह प्रतिदिनं विष्णुभगवान्‌का ध्यान और मनत्रका

जप करने लगा। नारदजी भी वहीँ रहे। थोड़े समयमें हो

बालकके तपसे संतुष्ट होकर भगवान्‌ विष्णु गरुड़पर सवार हो

वहाँ पहुँचे। देवर्षि नारदके वचनसे बालूकने उन्हें पहचान

लिया, तब उसने भगवान दृढ़ भक्तिकी माँग की । भगवानने

प्रसन्न होकर ज्ञान और योगका उपदेश प्रदान किया और

अपनेमें भक्तिका आशीर्वाद देकर वे अन्तर्धान हो गये।

भगवानके उपदेशसे वह कारक महाज्ञानी महर्षि हो गया ।

एक दिन बाल्कने नारदजीसे पूछा--'महाराज ! यह

किस कर्मका फल है जो मुझे इतना कष्ट उठाना पड़ा। इतनी

छोटी अवस्थामें भी मैं क्यों ग्रहोंद्वारा पीड़ित हो रहा हूँ। मे

माता-पिताका कुछ भी पता नहीं, ये कहाँ हैं। फिर भी मैं

अत्यन्त क्टसे जी रहा हूँ। द्विजोच्तम ! ! सौभाग्ययश आपने

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