४८६ * पुराणं गारुडं वक्ष्ये सारं विष्णुकथाश्रयम् * [ संक्षिप्त गरुडपुराणाङ्क
ब्राह्मण- ये निरन्तर उस वैतरणी नदीमें वास करते हैं।
कृपण, नास्तिक ओर शुद्र प्राणी उसमें निवास करते हैं।
निरन्तर असहनशील तथा क्रोध करनेवाला, अपनी बातको
ही प्रमाण माननेवाला, दूसरेकी काततको खण्डित करनेवाला
नित्य वैतरणीर्मे निवास करता है। अहंकारी, पापी तथा
अपनी झूठी प्रशंसा करनेवाला, कृतघ्न, गर्भपात करनेवाला
चैतरणौ्मे निवास करता है। कदाचित् भाग्ययोगसे यदि उस
नदीको पार करनेकी इच्छा उत्पन हो जाय तो तारनेका
उपाय सुनो।
मकर और कर्ककी संक्रान्तिका पुण्यकाल, व्यतीपात
योग, दिनोदय, सूर्य, चन््रग्रहण, संक्रान्ति, अमावास्या
अथवा अन्य पुण्यकालके आनेपर श्रेष्ठतम दान दिया जाता
है। मनमें दान देनेकी श्रद्धा जब कभी उत्पन्न हो जाय, वही
दानका काल है; क्योकि सम्पत्ति अस्थिर है।
शरीर अनित्य है और धन भी सदा रहनेवाला नहीं है ।
मृत्यु सदा समीप है, इसलिये धर्म - संग्रह करना चाहिवे-
अनित्यानि शरीराणि विभयो नैव शाश्चतः॥
नित्यं संनिहितो मृत्युः कत॑व्यो धर्मसंग्रहः ।
(४७। २४-२५)
काली अधवा लाल रंगकी शुभ लक्षणोंवाली वैतरणी
गायको सोनेकौ सींग, चाँदीके खुर, कांस्यपात्रकौ दोहनीसे
युक्त दो काले रंगके यस्ते आच्छादित करके सप्तधान्य-
समन्वित करके ब्राह्मणको निवेदित करे । कपाससे बने हुए
द्रोणाचलके शिखरपर ताग्रपात्रमे लौहदण्ड लेकर बैठी हुई
स्वर्णनिर्मित यमकी प्रतिमा स्थापिते करे। सुदृढ़ बन्धनोंसे
बाँधकर इश्लुदण्डॉकी एक नौका तैयार करे। उसीसे सूर्यसे
उत्यन्न गौको सम्बद्ध कर दे। इसके बाद छत्र, पादुका,
अंगूठी और वस्क्रादिसे पूज्य श्रेष्ठ ब्राह्मणको संतुष्ट करके
जल तथा कुशके सहित इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए
वह वैतरणी गौ उसे दानमे समर्पित करे-
(४७। ३०-३२)
हि द्विजश्रेष्ठ! महाभयंकर वैतरणी नदीको सुनकर मैं
उसको पार करनेकी अभिलाषासे आपको यह वैतरणी दान
दे रहा हूँ। हे चिप्रदेव! गौएँ मैरे आगे रहें, गौएँ मेरे बगलमे
रहें, गौं मेरे हृदयमें रहें और मैं उन गायोंके बीच रहूँ।
हे विष्णुरूप! द्विजवरेष्य! भूदेव! मेरा उद्धार करो। मैं
दक्षिणासहित यह वैतरणी गौ आपको दे रहा हूँ। आप मेरा
प्रणाम स्वीकार करें।
इसके बाद सबके स्वामी धर्मराजकी प्रतिमा और
वैतरणी नामवाली उस गौकी प्रदक्षिणा करके ब्राह्मनको
दान दे। उस समय वह ब्राह्मणको आगे कर उस बैतरणी
गौकी पूँछ हाथमें लेकर यह कहे--
धेनुके त्व॑प्रतीक्षस्त यमद्वारे पहाभये॥
उत्तारणाय देवेशि वैतरण्यै नमोऽस्तु ते।
(४७। ३४-३५)
"हे गौ! उस महानदीसे मुझे पार उतारनेके लिये आप
महाभयकारी यमराजके द्वारपर मेरी प्रतीक्षा करें। हे
चैतरणी ! देवेश्वरि! आपको मेरा नमस्कार है।'
ऐसा कहकर उस गौको ब्राह्मणके हाथमें देकर उनके
पीछे-पीछे उनके घरतक पहुँचाने जाय। हे वैनतेय ! ऐसा
करनेपर वह नदी दाताके लिये सरलतासे पार करनेके
योग्य बन जाती है। जो व्यक्ति इस पृथ्वीपर गौका दान देता
है, वह अपने समस्त अभीष्टको सिद्ध कर लेता है।
सुकर्मके प्रभावसे प्राणीको एेहिक और पारलौकिक
सुखकी प्राप्ति होती है। स्वस्थ जीवनमें गोदान देनेसे हजार
गुना एवं रोगग्रस्त जीवनमें सौ गुना लाभ निश्चित है। मरे
हुए प्राणीके कल्याणार्थ जितना दान दिया जाता है, उतना
ही उसका पुष्य है। अत: मनुष्यको अपने हाथसे हौ दान
देना चाहिये। मृत्यु होनेके बाद कौन किसके लिये दान
देगा? दान-धर्मसे रहित कृपणतापूर्वक जोवन जौनेसे क्या
लाभ? इस नश्वर शरीरसे स्थिर कर्म करना चाहिये। प्राण
अतिधिकौ तरह अवश्य छोड़कर चले जायँगे।
हे पक्षिराज! इस प्रकार प्राणिवर्गके समस्त दुःखका
वर्णन मैंने तुमसे कर दिया है। इसके साथ यह भी बता
दिया है कि प्रेतके मोक्ष एवं लोकमङ्गलके लिये उसके
ओर्ध्वदेहिक कर्मको करना चाहिये ।
सूतजीने कहा--हे विप्रगण! परम तेजस्वी भगवान्
विष्नुके द्वारा दिये गये ऐसे प्रेत-चरितसे सम्बन्धित