Home
← पिछला
अगला →

ड८८

+ अग्निपुराण *

जानुबन्ध, भुजाबन्ध, सुदारुण, गात्रबन्ध, विपृष्ठ, | तीन घुड़सवार सैनिक रहें तथा घोड़ेको रक्षाके

सोदक, श्र तथा भुजावेष्टित ॥ २४-- २९ ‡ ॥

युद्धम कवच धारण करके, अस्त्र-शस्त्रसे सम्पन

हो, हाथी आदि वाहनों पर चढ़कर उपस्थित होना

चाहिये । हाथीपर उत्तम अङ्कुश धारण किये दो

महावत या चालक रहने चाहिये । उनमेंसे एक तो

हाथीकी गर्दनपर सवार हो ओर दूसरा उसके

कंधेपर। इनके अतिरिक्त सवारोंमें दो धनुर्धर होने

चाहिये और दो खड़धारी॥ ३०-३१॥

प्रत्येक रथ और हाथीकी रक्षाके लिये तीन-

लिये तीन- तीन धनुर्धर पैदल-सैनिक रहने चाहिये।

धनुर्धरकी रक्षाके लिये चर्म या ढाल लिये रहनेवाले

योद्धाकी नियुक्ति करनी चाहिये॥३२॥

जो प्रत्येक शस्त्रका उसके अपने मन््रोसे पूजन

करके त्रैलोक्यमोहन-कवच'का पाठ करनेके

अनन्तर युद्धम जाता है, बह शत्रओंपर विजय

पाता और भूतलकी रक्षा करता है । (पाठान्तरके

अनुसार शत्रुओंपर विजय पाता और उन्हें निश्चय

ही मार गिराता है।)॥ ३३॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमे 'धर्तुर्वेदका कथन” नामक

दो सौ बावतवां अध्याय पूरा हुआ॥ २५२॥

न~

दो सौ तिरपनवाँ अध्याय

व्यवहारशास््र तथा विविध व्यवहारोंका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- वसिष्ठ! अब मैं व्यवहारका

वर्णन करता हूँ, जो नय और अनयका विवेक

प्रदान करनेवाला है। उसके चार चरण, चार

स्थान और चार साधन बतलाये गये हैं। वह

चारका हितकारी, चारमें व्याप्त और चारका कर्ता

कहा जाता है। वह आठ अङ्ग, अठारह पद, सौ

शाखा, तीन योनि, दो अभियोग, दो द्वार और दो

गतियोंसे युक्त है ॥ १-२६॥

धर्म, व्यवहार, चरित्र और राजशासन--ये

व्यवहारदर्शनके चार चरण हैँ । इनमें उत्तरोत्तर पाद

पूर्व -पूर्वं पादके साधक है । इन सवे 'धर्म'का

आधार सत्य है, ' व्यवहार" का आधार साक्षी

(गवाह) है, " चरित्र पुरुषोके संग्रहपर आधारित

है ओर 'शासन' राजाकी आज्ञापर अवलम्बित

है । साम, दान, दण्ड और भेद--इन चार उपायोंसे

साध्य होनेके कारण वह “चार साधनोंवाला' है ।

चारों आश्रमोंकी रक्षा करनेसे वह ' चतुर्हित' है ।

१, अभियोगका उपस्यापक या "मुष" ।

२. अधियोगका प्रतियादी था ' मुद्लेह ' ३

अभियोक्ता, साक्षी, सभासद और राजा--इनमें

एक-एक चरणसे उसकी स्थिति है -- इसलिये उसे

" चतुरव्यापी ' माना गया है । वह धर्म, अर्थ, यश

ओर लोकप्रियता-इन चारोंकी वृद्धि करनेवाला

होनेसे ' चतुष्कारी" कहा जाता है । राजपुरुष, सभासद,

शास्त्र, गणक, लेखक, सुवर्ण, अग्रि ओर जल--

इन आठ अङ्गसे युक्त होनेके कारण वह ' अष्टाङ्ग '

है। काम, क्रोध ओर लोभ--इन तीन कारणोंसे

मनुष्यकी इसमें प्रवृत्ति होती है, इसीलिये व्यवहारको

“त्रियोनि' कहा जाता है; क्योकि ये तीनों ही

विवाद करानेवाले हैं। अभियोगके दो भेद हैं--

(१) शङ्काभियोग और (२) तत्त्वाभियोग। इसी

दृष्टिसे बह दो अभियोगवाला है। “ शङ्का" असत्‌

पुरुषोंके संसर्गसे होती है और “तत्त्वाभियोग'

होढा (चिह्न या प्रमाण) देखनेसे होता है। यह दो

पक्षोंसे सम्बन्धित होनेके कारण *दो द्वारोंवाला'

कहा जाता है। इनमें पूर्ववाद' 'पक्ष' और उत्तरबाद

← पिछला
अगला →