आचारकाण्ड ]
* नुसिंहस्तोत्र तथा उसकी महिमा *
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बात दैः?
दुःख-सागरको पार करनेके लिये यज्ञ, जप, स्नान और
विष्णुका ध्यान तथा पूजन करना चाहिये ।
राष्ट्रका आश्रय राजा, बालकका आश्रय पिता और
समस्त प्राणियोंका आश्रय धर्म है; किंतु सभीके आश्रय
श्रीहरि ही ह
शष्टस्य शरणं राजा पितरों बालकस्य च।
धर्मश्च सर्वमर्त्यानां सर्वस्य शरणां हरिः॥
(२३६०।४६)
है मुनिवर! जो लोग जगतके कारणस्वरूपं सनातन
भगवान् वासुदेवको नमन करते हैं, उनसे अधिक श्रेष्ठ
पुण्यवान् कोई तीर्थं नहीं है । निरालस्य होकर गोविन्दका
ध्यान करते हुए उन्हीकौ समर्पित स्वाध्याय आदि कर्म
करना चाहिये। भगवद्धक व्यक्ति चाहे शुद्र हो अथवा
निषाद हो या चाण्डाल हो, उसे द्विजातियेकि समान ही
माननेवाला व्यक्ति नरकमें नहीं जाता। जैसे धनप्राप्तिकी
अभिलाषासे धनवान् व्यक्तिकी सदैव सम्मानपूर्वक स्तुति
की जाती है, वैसे ही जगत्ल्ष्टा श्रीविष्णुकी स्तुति-पृजा
आदि की जाय तो क्यो नहीं इस संसारके बन्धनसे मुक्ति
हो सकती है?
जिस प्रकार बनमें लगी हुई अग्नि गीले ईंधनको
जलाकर राख कर देती है, उसी प्रकार योगियोके हृदयमें
स्थित भगवान् विष्णु उनके समस्ते पापोंकों विनष्ट कर
देते हैं। जैसे चारो ओरसे लगी हुईं अग्निकी ज्वालासे
घिरे हुए पर्ववका आश्रय मृग आदि पशु एवं पक्षी नहीं
लेते, वैसे हौ सभी पाप योगाभ्यासमें लगे हुए मनुष्यका
आश्रय नहीं ग्रहण करते। उन विष्णुके प्रति जिसका विश्वास
जितना अधिक दृढ़ होता है, उसको उतनी ही अधिक
सिद्धि प्राप्त होती है।
भगवान् कृष्णके ऐसे प्रभावका आकलन कर शत्रुभावसे
उन गोविन्दका स्मरण करता हुआ दमघोषका पुत्र शिशुपाल
भगवानूमें लीन हो गया। यदि कोई मनुष्य भक्तिभावसे
विष्णुपरायण है, तो उसके विषयमे क्या कहना? उसकी
मुक्ति तो पहलेसे ही सुनिश्चित हो जाती है-
विद्वेषादप गोविन्दं दमघोषात्मजः स्मरन्।
शिशुपालो गतस्त्वं किं पुनस्तत्परायणः ॥
(२३०।५४)
(अध्याय २३०)
न यम्य >>
नृसिंहस्तोत्र तथा उसकी महिमा
सूतजीने कहा--हे शौनक ! अब मैं भगवान् शिवद्रारा
कही गयी नरसिंहस्तुति (नृसिंहस्तोत्र)-का वर्णन करूँगा।
प्राचीन कालकी बात है, एक बार सभी मातृगणोंने
भगवान् शंकरसे कहा कि हे भगवन्! हम सब आपकी
कृपासे देव, असुर और मनुष्य आदि जो इस संसारमें प्राणी
हैं, उन सबको खायेंगे। हम सभीकों आप इसके लिये
आज्ञा प्रदान करें।
शंकरजीने कहा -- हे मातृकाओ! आप सबके द्वारा
संसारकी समस्त प्रजाकी रक्षा होनी चाहिये। इसलिये इस
महाभयंकर पापसे आप लोग अपने-अपने मनको शीघ्र
वापस कर लें।
आणियॉको खानेके लिये जुट गयीं । मातृकाओंकि द्वार त्रैलोक्यका
भक्षण कलते देखकर भगवान् शिवने नृसिंहरूप उन श्रीविष्णुदेवका
इस रूपम ध्यान किया- जो आदि-अन्तसे रहित एवं समस्त
चराचर जगत्के कारण हैं, विदयुत्के समान लपलपाती हुई
जिनकी जिद्ध है, जिनके बड़े-बड़े महाभयंकर दाँत है,
जिनको ग्रीवा देदीप्यमान केसरे सुशोभित है, जो रत्नजटित
अङ्गद एवं मुकुटसे सुशोभित हैं। जिनका शिरोभाग सोनेके
समान दिखायी देनेवाली ओसि युक्त है, जिनके कटिप्रदेशमें
सोनेकी करधनी है, जो नीलकमलके समान श्यामवर्णके
हैं, जो रत्नखचित पायल धारण किये हुए है । जिनके तैजसे
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व्याप्त है। जिनका शरीर आवर्ताकार रोमसमूहसे
भगवान् शंकरके द्वारा ऐसा कहे जानेपर भी मातृकाएँ युक्त है और जो देव श्रेष्ठतम पुष्पोंसे गूँथी गयी एक विशाल
उनके वचनका अनादर करते हुए त्रिभुवनके समस्त चराचर
मालाकों धारण किये हुए हैं। इस तरह भगवान् रुद्रने
१-यम्ि् न्यस्तमतिर्न याति नस्क स्वर्गोऽपि यच्चिन्तने खिप्नों यत्र न जा बिशेत् कथमपि ग्राह्मोौईपि लोकोऽल्पकः ।
मुक्तिं चेतसि संस्थितो जडधिया पुंसां ददात्यव्यद: किं चित्रं दयं प्रयाति खिलय॑ तच्च्युते कौर्तिते ॥ (२३०। ४४)
२-सिंहकौ ग्रीवाके ऊपरो भागके केशसमृहको ' केसर" कहते है ।