* प्रकृतिखण्ड + ह ९७५
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पाप करता है, वे सभी पाप तुम्हारे नामका स्मरण | उन देवौने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिये । राजाने
करते हो भस्म हो जायँगे।* उनसे मनोऽभिलपित बर प्राप्त किया। यह स्तवराज
इस प्रकार स्तुति करके जगद्धाता ब्रह्माजी | परम पवित्रे है । पुरुष यदि संध्याके पश्चात् इस
वहीं गोलोककी सभामें विराजमान हो गये । तब | स्तवका पाठ करता है तो चारों वेदोके पाठ
सावित्री उनके साथ ब्रह्मलोके जानेके लिये | करनेसे जो फल मिलता है, उसी फलका वह
प्रस्तुत हो गयीं। मुने! इसी स्तोत्रराजसे राजा | अधिकारी हो जाता है।
अश्चपतिने भगवती सावित्रीकी स्तुति की थी, तब | (अध्याय २३)
राजा अश्वपतिद्वारा सावित्रीकी उपासना तथा फलस्वरूप सावित्री
नामक कन्याकी उत्पत्ति, सत्यवान्के साथ सावित्रीका
विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री ओर यमराजका संवाद
भगवान् नारायण कहते हैं--नारद! जब | चाहते हो; क्रमसे दोनों ही प्राप्त होगे।
राजा अश्चपतिने विधिपूर्वक भगवती सावित्रीकौ | इस प्रकार कहकर भगवती सावित्री ब्रह्मलोके
पूजा करके इस स्तोत्रसे उनका स्तवन किया, | चली गयीं और राजा भी अपने घर लौट आये ।
तब देवी उनके सामने प्रकट हो गयीं। उनका | यहाँ समयानुसार पहले कन्याका जन्म हुआ।
श्रीविग्रह ऐसा प्रकाशमान था, मानो हजारों सूर्य भगवतो सावित्रीकी आराधनासे उत्पन्न हुई लक्ष्मीकी
एक साथ उदित हो गये हों। साध्वी सावित्री कलास्वरूपा उस कन्याका नाम राजा अश्वपतिने
अत्यन्त प्रसन्न होकर हँसती हुईं राजा अश्वपतिसे | सावित्री रखा। वह कन्या समयानुसार शुक्लपक्षके
इस प्रकार बोलीं, मानों माता अपने पुत्रसे बात | चन्द्रमाके समान प्रतिदिन बढ़ने लगी। समयपर
कर रही हो। उस समय देवी सावित्रीकी प्रभासे | उस सुन्दरी कन्यामें नववौवनके लक्षण प्रकट हो
चारों दिशाएँ उद्धासित हो रही थीं। गये। द्युमत्सेनकुमार सत्यवान्का उसने पतिरूपमें
देवी सावित्रीने कहा--महाराज! तुम्हारे वरण किया; क्योंकि सत्यवान् सत्यवादी, सुशील
मनकी जो अभिलाषा है, उसे मैं जानती हूं । | एवं नाना प्रकारके उत्तम गुणोंसे सम्पन्न थे। राजाने
तुम्हारी पत्नौके सम्पूर्ण मनोरथ भी मुझसे छिपे | रत्रमय भूषणोंसे अलंकृत करके अपनी कन्या
नहीं है । अतः सब कुछ देनेके लिये मैं निश्चितरूपसे | सावित्री सत्यवान्कों समर्पित कर दौ। सत्यवान्
प्रस्तुत हूँ । राजन्! तुम्हारी परम साध्वी रानी | भी श्वशुरकी ओरसे मिले हुए बड़े भारी दहेजके
कन्याकौ अभिलाषा करती है और तुम पुत्रे साथ उस कन्याको लेकर अपने घर चले गये।
"ब्रह्मोवाच
नारायणस्वरूपे च नारायणि सनातनि। नारायणात्समुद्धूते प्रस्ना भव सुन्दरि॥
तेजःस्वरूपे परमे परमानन्दरूपिणि । द्विजातीनां जातिरूपे प्रसन्ना भव सुन्दरि ॥
नित्ये तित्यप्रिये देवि नित्यानन्दस्वरूपिणि । सव॑मङ्गलरूपेण प्रसन्ना भव सुन्दरि॥
सर्वस्वरूपे विप्राणां मन्त्रसरे परात्परे। सुखदे मोक्षदे देवि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥
विप्रपपेध्पदाहाय ज्वलदग्रिशिखोपमे । ब्रह्मतेज:प्रदे देवि प्रसन्ना भव सुन्दरि॥
कायेन मनसा वाचा यत्पापं कुरुते द्विजः। तत् ते स्मरणपात्रेण भस्मीभूतं भविष्यति॥
(प्रकृतिखण्ड २३ । ७९-८४)