ज्राह्मपर्ण ]
* विविध स्पृति-यर्मों तथा संस्कारोंका वर्णन *
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इषन्ति-विधानको प्रयत्रपर्वक करना चाहिये । अहोपघात,
दुर्भिक्ष, सभी उत्पाते तथा अनायुषटि आदिमे लक्ष-
होससमन्यित सौरसूक्तसे यत्रपूर्वक पूजन कर एवं वारुण
सुक्तसे प्रसन्नचित्त हो घी, मधु, तिल, यव एवं मधुके साथ
पायससे हवन एवं शान्ति करे और सावधान हो बलि (नैवेद्य)
प्रदान करें। ऐसा करनेसे देवतागण भनुष्यकि कल्याणकी
कामना करते हैं एवं उनके लिये लक्ष्मीकी वृष्टि करते हैं। जो
मनुष्य भगवान् दिवाकरका ध्यान कर इस शान्ति-अध्यायकों
पढ़ता या सुनता है, यह रणमें झत्रुपर विजयी हो परम
सम्मानको प्राप्त कर एकच्छत्र शासक होकर सदा आनन्दमय
जीवन व्यतीत करता है। वह पूुत्र-पौन्नोंसे प्रतिष्ठित होकर
आदित्यके समान तेजस्वी एवं प्रभासपन्वित व्याधिशुन्य
जीवन-यापन करता है। वीर ! जिसके कल्थाणके उद्देश्यसे
इस शान्तिकाध्याय (रान्तिकल्प) का पाठ किया जाता है,
वह वात-पित्त, कफजन्य रोगोंसे पीड़ित नहीं होता एवं उसकी
न तो सर्पके दासे मृत्यु होती है और न अकालमें मृत्यु होती
है। उसके ऋरीरमें विषका प्रभाव भी नहीं होता एव जडता,
अन्धत्व, मूकता भी नहीं होती। उत्पत्ति-भय नहो रहता और
न किसीके द्वारा किया गया अभिचार-कर्म सफल होता है।
गेण, महान् उत्पात, महाविषैले सर्प आदि सभी इसके श्रवणसे
शान्त हो जाते हैं। सभी गङ्गादि तीर्थौका जो विशेष फल है,
उसका कई गुना फल इस झान्तिकाध्यायके श्रकणसे प्राप्त होता
है और दस राजसुय एवे अन्य यज्ञोका फल भी उसे मिलता
है। इसे सुनयेवात् सौ वर्षतक व्याधिरहित नीरोग होकर
जोवन-यापन करता है। गोहत्यार. कृतघ्न. ब्रह्मघाती,
गुरुतल्पगामी और दारणागत, दीन, आर्त, मित्र तथा विश्वासी
व्यक्तिके साथ घात करनेकात्म, दुष्ट, पापाचारी, पितृधातक तथा
मातृघातक सभी इसके श्रवणसे निःसंदेह पापमुक्त हो जाते हैं।
यह अग्निकार्यं अतिदाय उत्तम एवं परम पुण्यपय है।
(अध्याय १७५-- १८०)
- ऋ कक
विविध स्मृति-धर्मों तथा संस्कारोंका वर्णन
राजा शतानीकने कहा--ब्रहान् ! पाँच प्रकारके जो
स्मृति आदि धर्म है, उन्हे जाननेकी मुझे बड़ी हो अभिलाया है ।
कृपापूर्वक आप उनका वर्णन करें।
सुपन्तुजी खोले--महाराज ! भगवान् भास्करने अपने
सारथि अरुणसे जिन पाँच प्रकारके धर्मोंकों बतलाया था, मैं
उनका वर्णन कर रहा हूँ, आप उन्हें सुनें।
भगवान् सूर्यने कहा--गरुडाग्रज ! स्मृतिप्रोक्त घर्मका
मूल सनातन वेद ही है। पूर्वानुभूत ज्ञानका स्मरण करना हो
स्मृति है। स्मृस्यादि धर्म पाँच प्रकास्के होते हैं। इन धर्मोंका
पालन करनेसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है तथा इस
त्क सुख, यदो और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है। पहला येद-
धर्म है। दूसरा है आश्रम-घर्म अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,
वानप्रस्थ और संन्यास । तीसरा है वर्णाश्रम-धर्म अर्थात्
ब्राह्मण, श्त्रिय, वैङ्य और यद्र । चौथा है गुणधर्म और
पाँचवाँ है नैमित्तिक धर्म--ये ही स्मृत्यादि पाँच प्रकारके धर्म
कहे गये हैं। वर्ण और आश्रमधर्मके अनुसार अपने
कर्तव्योंका निर्वाह करते हुए कर्मोंको सम्पादित करना हौ
वर्णाश्रम और आश्रमधर्मं फहलाता है। जिस धर्मक प्रवर्तन
गुणके द्वारा होता है, वह गुणधर्म कहलाता है। किसी
निभित्तको लेकर जो धर्म प्रवर्तित होता है, उसे नैमित्तिक धर्म
कहते हैं। यह नैमित्तिक धर्म जाति. द्रव्य तथा गुणके
आधारपर होता है।
निषेध और विधि-रूपमें शास्त्र दो प्रकात्के होते हैं।
स्पृतियाँ पाँच प्रकारकी हैं--दृष्ट-स्मृलि, अदृष्ट-स्मृति,
दृष्टदृषट-स्मृति, अनुवाद-स्मृति और अदृशदृष्ट-स्पृति। सभी
स्मृतियोंका मूल वेद ही है । स्मृतिधर्मके साधन-स्थान ब्रह्मावर्त,
सध्यक्षेत्र, मध्यदेझ, आर्यावर्तं तथा यज्ञिय आदि देडा है ।
सरस्वत और दुषइती (कुरुक्षेत्रके दक्षिण सीपाकी एक नदी)
इन दो देव-नदियोंके बीचका जो देदा है वह देव-निर्मित देदा
बरहगवर्त नामसे कहा जाता है। हिमाचल और चिन्ध्यपर्वतके
बोचके देशको जो कुरुक्षेत्रके पूर्व और प्रयागके पश्चिमम स्थित
है उसे मध्यदेश कहा जाता है । पूर्व-समुद्र तथा पश्चिम-समुद्र,
हिमालय तथा विश्याचल पर्वतके बीचके देशकों आर्यावर्त
देश कहा जाता है! जहाँ कृष्णसार मृण (कस्तृरी मृग)
विचरण करते हैं और स्वभावतः निवास करते हैं, वह यज्ञिय
देश है। इनके अतिरिक्त दुसरे अन्य देश म्लेच्छ-देश हैं जो