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* श्रीपद्धावत *
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चरण ही समस्त वैदिकं कर्मोके समर्षणस्थान और
मोक्षस्वरूप है *॥ २०॥ भगवन् ! परमात्मतत्वका ज्ञान
प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । उसीका ज्ञान करानेके लिये
आप विविध प्रकारके अवतार ग्रहण करते हैं और उनके
द्वारा ऐसी लीला करते है, जो अमृतके महासागरसे भी
मधुर ओर मादक होती है । जो लोग उसका सेवन करते
है उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्दमे
मन हो जाते हैँ । कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो
आपकी लीला-कथाओंको छोड़कर मोक्षकी भी
अभिलाषा नहीं करते--स्वर्ग आदिकी तो बात ही क्या
है । वे आपके चरण-कमलेकि प्रेमी परमहंसोंके सत्संगमें,
जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि
उसके लिये इस जीवनमें प्राप्त अपनी घर-गृहस्थीका भी
परित्याग कर देते है†॥ २९॥
प्रभो ! यह शरीर आपकी सेवाका साधन होकर जब
आपके पथका अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी,
सुहद् और प्रिय व्यक्तिके समान आचरण करता है । आप
जीवके सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही है ओर सदा-
सर्वदा जीवको अपनानेके लिये तैयार भी रहते है । इतनी
सुगमता होनेपर तथा अनुकूल मानव शरीएको पाकर भी
लोग सख्यभाव आदिके द्वारा आपकी उपासना नहीं करते,
आपमे नही रमते, बल्कि इस विनाशी और असत् शरीर
तथा उसके सम्बन्धियोंमें ही रम जाते हैं, उन्हींकी उपासना
अ
त्वदेशस्य ममेशान
दो।
करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्माका हनन करते
हैं, उसे अधोगतिमें पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्टकी
बात है ! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ,
सारी वासनाएँ शरीर आदिमे ही लग जाती हैं और फिर
उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदिके न जाने कितने
बुरे-बुरे शरीर अहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त
भयावह जनम-मृत्युरूप संसारम भटकना पड़ता
है; २२॥ प्रभो! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति
अपने प्राण, मन और इच्द्रियोंको वशमें करके दृढ़
योगाध्यासके द्वारा हृदयमें आपकी उपासना करते हैं।
परन्तु आश्चर्यकी बात तो यह है कि उन्हें जिस पदको
प्राप्ति होती है, उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओंको भी हो जाती
है, जो आपसे वैर-भाव रखते है । क्योकि स्मरण तो वे भी
करते ही हैं। कहाँतक कहें, भगवन् ! वे ख्त्रियाँ, जो
अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी
शेषनागके समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओकि
प्रति कामभावसे आसक्त रहती हैं, जिस परम पदको प्रप्त
करती हैं, वही पद हम श्रुतियोंको भी प्राप्त होता है--
यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं
और आपके चरणारविन्दका मकरन्द्रस पान करती रहती
हैं। क्यो न न हो, आप समदर्शी जो है । आपकी दृष्टिमें
उपासकके परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भावमें कोई अन्तर
नहीं है$ ॥ २३॥
त्क्भायाकृतबग्पनम् ।
त्वदद्िघ्रसेवामदिश्य पएणनन्द निवर्तय ॥ ७ ॥
मेरे परमानन्दस्वरूप स्वामी ! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणोंकी सेवा आदेश देकर अपनी मायाके द्वारा निर्मित मेरे बन्धनके निवृत्त कर
† तत्कथामृतपाधोधी वित्तो मह्यमुदः ।
कुन्त
कृतिनः केचिच्चतूर्वगै तृष्णोपमम् ॥ ८ ॥
कोई-कोई विरले शुद्धान्तःकरण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्रमें बिहार करते हुए परमानन्दमे मग्न रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम,
मोक्ष--इन चते पुस्थाथोंकों तृणके समान तुच्छ बना देते हैं।
‡ ल्वय्वात्मनि जाज़ावे
कदा जन्य
मन्मनो रमताचिह ।
मानुषं स्रम्भकिष्यति ॥ ९॥
मेदुर
आप अगते स्वामी हैं नैर अपनी आत्मा ही हैँ । इस जोवनमें हौ मेरा मन आपमें रम जाय । मैरे स्वामी ! मेत ऐसा सौभाग्य कब होगा,
जब मुझे इस प्रकारका मनुष्यजम प्राप्त होगा ?
है चत्णस्मरणं प्रेम्ण तब देव
मम
यधाकथक्निज्रहो
सुदुर्लभम्।
भूषादहर्तिशम्॥ १० ॥