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साठ, एड़ियोंमें दो, गुल्फो चार, अरत्नियॉमें

चार और जंघोंमें भी चार ही हड्डियाँ हैं। घुटनोंमें

दो, गालोंमें दो, ऊरुओंमें दो तथा फलकोंके

मूलभागमें भी दो ही हड्डियाँ हैं। इन्द्रियोंके स्थानों

तथा श्रोणिफलकमें भी इसी प्रकार दो-दो हड्डियाँ

बतायी गयी हैं। भगमें भी थोड़ी-सी हड्डियाँ हैं।

पीठमें पैंतालीस और गलेमें भी पैंतालीस हैं।

गलेकी हसली, ठोड़ी तथा उसकी जड़में दो-दो

अस्थियाँ हैं। ललाट, नेत्र, कपोल, नासिका,

चरण, पसली, तालु तथा अर्बुद-इन सबमें

सृक्ष्मरूपसे बहत्तर हड्डियाँ हैं। मस्तकमें दो

शङ्खं और चार कपाल हैं तथा छातीमें सत्रह

हड्डियाँ हैं। संधियाँ दो सौ दस बतायी गयी

हैं। इनमेंसे शाखाओंमें अड़सठ तथा उनसठ हैं

और अन्तरामें तिरासी संधियाँ बतायी गयी हैं।

स्रायुकी संख्या नौ सौ है, जिनमेंसे अन्तराधिमें दो

सौ तीस हैं, सत्तर ऊर्ध्वगामी हैं और शाखाओंमें

छः सौ ख्रायु हैं। पेशियाँ पाँच सौ बतलायी गयी

हैं। इनमें चालीस तो ऊर्ध्वगामिनी हैं, चार सौं

शाखाओंमें हैं और साठ अन्तराधिमें हैं। स्त्रियोंकी

मांसपेशियाँ पुरुषोंकी अपेक्षा सत्ताईस अधिक हैं।

इनमें दस दोनों स्तननं, तेरह योनिमें तथा चार

गर्भाशयमें स्थित हैं। देहधारियोंके शरीरमें तीस

हजार नौ तथा छष्पन हजार नाड़ियाँ हैं। जैसे

छोटी-छोटी नालियाँ क्यारियोंमें पानी बहाकर ले

जाती हैं, उसी प्रकार वे नाड़ियाँ सम्पूर्ण शरीरमें

रसको प्रवाहित करती हैं। क्लेद ओर लेप आदि

उन्हीकि कार्य हैं। महामुने! इस देहमें बहत्तर

करोड़ छिद्र या रोमकूप हैं तथा मज्जा, मेदा, वसा,

मूत्र, पित्त, श्लेष्मा, मल, रक्त और रस--इनकी

क्रमशः 'अञ्जलियाँ' मानी गयी हैं। इनमेंसे पूर्व-

पूर्व अञ्जलीकी अपेक्षा उत्तरोत्तर सभी अञ्जलियाँ

मात्रामें डेढ-गुनी अधिक हैं। एक अञ्जलिमें

आधी वीर्यकी ओर आधी ओजकी है। विद्वानोंने

स्त्र्योके रजकी चार अञ्जलियां बतायी हैं। यह

शरीर मल और दोष आदिका पिण्ड है, ऐसा

समझकर अपने अन्तःकरणे इसके प्रति होनेवाली

आसक्तिका त्याग करना चाहिये॥ १--४३॥

इस ग्रकार आदि आण्य महाएुराणमें "सर्तीरवववविभागका वर्णन” नामक

तीत सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३७० #

तीन सौ इकहत्तरवाँ अध्याय

प्राणियोंकी मृत्यु, नरक तथा पापमूलक जन्मका वर्णन

अग्निदेव कहते हैं-- मुने ! मैं यमराजके मार्गकी | वायुका प्रकोप होता है और वायु अपने निकलनेके

पहले चर्चा कर चुका हूँ, इस समय मनुष्योंकी | लिये छिद्र ढूँढ़ने लगती है। दो नेत्र, दो कान, दो

मृत्युके विषयमें कुछ निवेदन करूँगा। शरीरमें नासिका ओर एक ऊपरका ब्रह्मरन्ध्र -ये सात

जब वातका वेग बढ़ जाता है तो उसकी प्रेरणासे | छिद्र हैं तथा आठवाँ छिद्र मुख है। शुभ कार्य

ऊष्मा अर्थात्‌ पित्तका भी प्रकोप हो जाता है। वह | करनेवाले मनुष्योकि प्राण प्राय: इन्हीं सात मार्गोंसे

पित्त सारे शरीरको रोककर सम्पूर्ण दोषोंको | निकलते हैं। नीचे भी दो छिद्र हैं--गुदा और

आवृत कर लेता है तथा प्राणोंके स्थान और | उपस्थ। पापिर्योके प्राण इन्हीं छिद्रोंसे बाहर होते

मर्मोंका उच्छेद कर डालता है। फिर शीतसे | हैं, परंतु योगीके प्राण मस्तकका भेदन करके

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