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* दशम स्कन्ध *

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पकड़कर कहा ॥ ६० ॥

बसुदेवजीने कहा--भाईजी ! भगवानने मनुष्योके

लिये एक बहुत बड़ा बच्चन बना दिया है। उस बन्धनका

नाम है से, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि

बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोड़नेमें

असमर्थ है ॥ ६१ ॥ आपने हम अकृतज्ञोंके प्रति अनुपम

मित्रताका व्यवहार किया है। क्‍यों न हो, आप-सरीखे संत

शिरोमणियोंका तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका

कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल

नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी

टूटनेबाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते

रहेंगे॥ ६२ ॥ भाईजी ! पहले तो बंदीगृहमें बंद होनेके

कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके ।

अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्तिके

नशेसे--श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो

भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते॥ ६३ ॥ दूसरोंको

सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी ! जो

कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिले--इसीमें उसका

भला है; क्योकि मनुष्य राज्यलक्ष्मीसे अंधा हो जाता है

और अपने भाई-बन्धु, स्वजनोतकको नहीं देख

पाता ॥ दंड ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित्‌ ! इस प्रकार

कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया।

उन्हें नन्दबाचाकी मित्रता और उपकार स्मरण हो आये।

उनके नेत्रे प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे ॥ ६५॥

नन्‍्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं

भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बैंधकर

आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह गये।

यदुवंशियोने जीभर उनका सम्मान किया ॥ ६६॥ इसके

बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वख, नाना प्रकारकी

उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके

व्रजवासी साथियोंकों और बन्धु-वान्धवोको खूब तृप्त

किया ॥ ६७॥ वसुदेवजी, उप्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम

उद्धव आदि यदुवंशियोने अलग-अलग उन्हें अनेकों

प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर उन सब

सामग्रियोंको लेकर नन्दबाका, अपने व्रजके लिये रवाना

हुए॥ ६८॥ नन्दबाबा, गोपो और गोपियोंका चित्त

भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमर्लोमिं इस प्रकार लग

गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे वहाँसे

लौटा न सके। सुतरां बिना हो मनके उन्होंने मथुराकी

यात्रा की ॥ ६९ ॥

जब सब बन्धु-बान्धव वहाँसे विदा हो चुके, तब

भगवान्‌ श्रीकृष्फो ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले

यदुवंशियोने यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है,

द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ७० ॥ वहाँ जाकर उन्होंने

सब लोगोंसे बसुदेवजीके यज्ञमहोत्सव, स्वजन-

सम्बन्धियोंके दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्राके प्रसङ्गोको

कह सुनाया ॥ ७१॥

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पचासीवाँ अध्याय

श्रीभगवानके द्वारा वसुदेवजीको ब्रह्मज्ञानका उपदेश तथा देवकीजीके छः पुत्रोंको लौटा लाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परोक्षित्‌ इसके बाद

एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रातःकालीन

प्रणाम करनेके लिये माता-पिताके पास गये। प्रणाम कर

लेनेपर वसुदेवजी बड़े प्रेमसे दोनों भाइयोका अभिनन्दन

करके कहने लगे ॥ १॥ वसुदेवजीने बड़े-बड़े ऋषियोंकि

महसे भगवानकी महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण

चरित्र भी देखे धे । इससे उन्हें इस बातका दृढ़ विश्वास हो

गवा था कि ये साधारण पुरुष नही, खयं भगवान्‌ हैं।

इसलिये उन्होंने अपने पुत्रोंको प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके

यों कहा--॥२॥ 'सच्विदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण !

महायोगीश्वर सड्डूर्थण ! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता

५ तुम दोनों सारे जगतके साक्षात्‌ कारणस्वरूप प्रधान

पुरुषके भी नियामक परमेश्वर हो ॥ ३॥ इस जगत्के

आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस

सारे जगतके स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीडाके

लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस

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