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आ०७५ ]

* दशम स्कन्ध *

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निन्दा सुनना असह्य था। उनमेंसे कई अपने-अपने कान

बंद करके क्रोधसे शिशुपालको गाली देते हुए बाहर चले

गये ॥ ३९ ॥ परीक्षित्‌ ! जो भगवान्‌की या भगवत्परायण

भक्तोंकी निन्दा सुनकर वहांसे हट नहीं जाता, वह अपने

कने च्युत हो जाता है ओर उसकी अधोगति होती

॥ ४० ॥

परीक्षित्‌ ! अब शिशुपालको मार डालनेके लिये

पाण्डव, मतस्य, केकय और सुञ्जयवशी नरपति क्रोधित

होकर हाथोंमें हथियार ले उठ खड़े हुए ॥४१॥ परन्तु

शिशुपालको इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना

किसी प्रकारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार

उठा ली और वह भरी सभामें श्रीकृष्णके पक्षपाती

राजाओंके ललकारने लगा॥४२॥ उन लोगोंको

लड़ते-झगड़ते देख भगवान्‌ श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए।

उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओंको शान्त किया और स्वयं

क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपालका सिर

छेके समान तीखी धारवाले चक्रसे काट लिया॥ ४३ ॥

शिशुपालके मारे जानेपर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया

उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचानेके लिये

वहसे भाग खड़े हुए॥ ४४ ॥ जैसे आकाशसे गिरा हुआ

लूक घरतीमें समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियोकि

देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकलकर

भगवान्‌ श्रीकृष्णे सपा गयी ॥४५॥ परीक्षित्‌ !

शिशुपालके अन्तःकरणमे लगातार तीन जन्मसे वैरभावकी

अभिवद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभावसे ही

सही, ध्यान करते-करते वह तन्यय हो गया-- पार्षद्‌ हो

गया । सच है--मृत्युके बाद होनेवाली गतिमें भाव ही

कारण है॥४६॥ शिशुपालकी सद्गति होनेके बाद

चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिरने सदस्यों और ऋत्विजोंको

पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक

यज्ञान्त-स्नान--अवभृथ-स््रान किया ॥ ४७॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने

धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने

सगे-सम्बन्धी ओर सुहृदोंकी प्रार्थनसे कुछ महीनॉतक

वहीं रहे ॥ ४८ ॥ इसके बाद राजा युधिष्ठिरकी इच्छा न

होनेपर भी सर्वशक्तिमान्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णे उनसे

अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्लियोंके साथ

इन्द्रप्रस्थसे द्वारकापुरीकी यात्रा की ॥ ४९ ॥ परीक्षित्‌ ! मैं

यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तारसे (सातवें स्कन्धमें)

सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजयको

सनकादि ऋषियोंके शापसे बार-बार जन्म लेना पड़ा

धा॥ ५० ॥ महाराज युधिष्टिर राजसूयका यज्ञान्त-स्रान

करके ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी सभामें देवराज इन्द्रके

समान शोभायमान होने लगे॥ ५१॥ राजा युधिष्ठिरने

देवता, मनुष्य और आकाशचारियोंका यथायोग्य सत्कार

किया तथा वे भगवान्‌ श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञकी

प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे अपने-अपने लोककों

चले गये ॥ ५२ ॥ परीक्षित्‌ सब तो सुखी हुए, परन्तु

दुर्योधनसे पाण्डवॉंकी यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मीका उत्कर्ष

सहन न हुआ । क्योकि वह स्वभावसे ही पापी, कलहप्रेमी

और कुरुकुलका नाश करनेके लिये एक मझन्‌ रोग

था॥ ५३ ॥

परीक्षित्‌! जो पुरुष भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस

लीलाका--शिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी राजाओंकी

मुक्ति और यज्ञानुष्ठानका कीर्तन करेगा, वह समस्त पापोंसे

छूट जायगा॥ ५४ ॥

के के के के कं

पचहत्तरवाँ अध्याय

राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्‌ ! अजातशत्रु बड़ी पीड़ा हुई; यह बात मैंने आपके मुखसे सुनी है।

धर्मराज युधिष्ठिके राजसुय यज्ञमहोत्सवको देखकर,

जितने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये

थे, वे सब आनन्दित हुए । परन्तु दुर्योधनको बड़ा दुःख,

भगवन्‌! आप कृपा करके इसका कारण

बतलाइये ॥ १-२ ॥

श्रीशुकदेवजी महाराजने कहा--परीक्षित्‌ ! तुम्हारे

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