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वक्षःस्थलपर सुनहली रेखा श्रीवत्सका चिद्ध है और
कमलके भीतरी भागके समान कोमल, रतनारे नेत्र है ।
सुन्दर वदन प्रसत्रताका सदन है । कानों मकराकृत
कुष्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियोका हार,
कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर शोभा
पा रहे हैं॥ ३-४॥ गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है
और वनमाला लटक रही है। भगवान् श्रीकृष्णको देखकर
उन राजाओंकी ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रोंसे उन्हें
पी रहे हैं। जीभसे चाट रहे हैं, नासिकासे सूँघ रहे हैं और
बाहूओंसे आलिङ्गन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो
भगवान्के दर्शनसे ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान्
्रीकृष्णके चरणॉपर अपना सिर रखकर प्रणाम
किया ॥ ५-६॥ भगवान् श्रीकृष्फे दर्शनसे उन
राजा ओको इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैदमें रहनेका
कलेश बिल्कुल जाता रहा। वे हाथ जोड़कर विनप्र
वाणीसे भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे॥ ७॥
राजाओंने कहा--शरणागतोंके सारे दुःख और भय
हर लेनेवाले देवदेवेश्वर ! सच्विदानन्दस्वरूप अविनाशी
श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते दै । आपने
जगासन्धके कारागारसे तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस
जन्म-मृत्युरूप घोर संसार-चक्रसे भी छुड़ा दीजिये; क्योकि
हम संसारमें दुःखका कटु अनुभव करके उससे ऊव गये
हैं और आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो ! अब आप हमारी
रक्षा कौजिये॥ ८॥ मधुसूदन ! हमारे स्वामी ! हम
मगधराज जगसन्धका कोई दोष नहीं देखते । भगवन् !
यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा
कहलानेवाले लोग राज्यलक््मीमे च्युत कर दिये
गये ॥ ९ ॥ क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्यके मदसे
उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुखकी--कल्याणकी
प्राप्त कभी नहीं हो सकती। वह आपकी मायासे मोहित
होकर अनित्य सम्पत्तियोंको ही अचल मान बैठता
है॥ १०॥ जैसे मूर्खलोग मृगतृष्णाके जलको ही
जलाशय मान लेते हैं, वैसे हौ इन्द्रियलोलुप और
अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील मायाको सत्य वस्तु
मान लेते हैं॥११५॥ भगवन्! पहले हमलोग
धन-सम्पत्तिके नशेमें चुर होकर अंधे हो रहे थे। इस
पृथ्वीकों जीत लेनेके लिये एक दूसरेकी होड़ करते थे
* दशम स्कन्ध *
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और अपनी हो प्रजाका नाश करते रहते चे । सचमुच
हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरतासे भरा हुआ धा और
हमलोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप
मृत्युरूपसे हमारे सामने खड़े है, इस बातकी भी हम
तनिक परवा नहीं करते थे ॥ १२ ॥ सच्विदानन्दस्वरूप
श्रीकृष्ण ! कालकी गति बड़ी गहन है । वह इतना
बलवान् है कि किसके राले टलता नही । क्यों न हो, वह
आपका शरीर ही तो है । अब उसने हमलोगॉको श्रीहीन,
निर्धन कर दिया है । आपकी अहैतुक अनुकम्पासे हमारा
घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरण-
कमर्लोका स्मरण करते है ॥ १३॥ विभो ! यह शरीर
दिनों-दिन क्षीण होता जा रहा है । रोगोंकी तो यह जन्मभूमि
हो है। अब हमें इस शरीरसे भोगे जानेवाले राज्यकी
अभिलाषा नहीं है। क्योकि हम समझ गये हैं कि वह
मृगतृष्णाके जलके समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं,
हमें कर्मके फल स्वर्गादि लोकोंकी भी, जो मरनेके बाद
मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे
निस््सार हैं, केवल सुननेमें हो आकर्षक जान पड़ते
हैं॥ १४॥ अब हमें कृपा करके आप वह उपाय
बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलोंकी विस्मृति कभी
न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसास्की किसी
भी योनिमें जन्म क्यो न लेना पड़े॥ १५॥ प्रणाम
करनेवालेकि वलेशक्ता नाश करनेवाले श्रीकृष्ण, वासुदेव,
हरि, परमात्मा एवं गोविन्दके प्रति हमारा बार-बार
नमस्कार है॥ १६॥
श्रीशुकदेवजी कहते है--परीक्षित् ! कारागारे
मुक्त राजाओने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान्
श्रीकृष्णकी स्तुति की, तब शरणागतरक्षक प्रभुने बड़ी
मधुर वाणीसे उनसे कहा ॥ १७॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा--नरपतियों ! तुमलोगोनि
जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आजसे मुझमें
तुमलोगोकी निश्चय हो सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो
कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ॥ १८॥
नरपतियो ! तुमलोगोने जो निश्चय किया है, वह सचमुच
तुम्होरे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है।
तृमलोगन मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिल्कुल ठीक है ।
क्योंकि मैं देखता हूँ, घन-सम्पत्ति और ऐश्वर्यक मदसे