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आ० २० ] [प

चरम न्धि +

३०९

(44.44 44.4.44... ओो की मे 4.4.44... 4444... 44;

स्मृति होती ही नहीं ॥ २२ ॥ यह स्वर्ग तो क्या--जहाँके

निवासियोंकी एक-एक कल्पकी आयु होती है किन्तु

जहाँसे फिर संसारचक्रे लौटना पड़ता है, उने

ब्रह्मतोकादिकी अपेक्षा भी भारतभूमिमें थोड़ी आयुवाले

होकर जन्म लेना अच्छ है; क्योकि यहाँ धीर पुरुष एक

क्षणे ही अपने इस मर्त्यशरीरसे किये हुए सम्पूर्ण कर्म

श्रीभगवानकों अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त

कर सकता है॥ २३ ॥

“जहाँ भगवत्कथाकी अमृतमयी सरिता नहीं बहती,

जहाँ उसके उदगमस्थान भगवद्धक्त साधुजन निवास नहीं

करते और जहाँ नृत्य-गीतादिके साथ बड़े समारोहसे

भगवान्‌ यज्ञपुरुषकी पूजा-अर्चा नहीं की जाती--बह

चाहे ब्रहालोक हो क्यो न हो, उसका सेवन नहीं करना

चाहिये ॥ २४॥ जिन जीवॉने इस भारतवर्षमें ज्ञान

(विवेकबुद्धि), तदनुकूल कर्म तथा उस कर्मके उपयोगी

द्रव्यादि सामग्रीसे सम्पन्न मनुष्य-जन्म पाया है, वे यदि

आवागमनके चक्रमे निकलनेका प्रयत्न नहीं करते, तो

व्याधकी फाँसीसे छूटकर भी फलादिके लोभसे उसी

वक्षपर विहार करनेवाले वनवासी पक्षियोंके समान फिर

अन्धनमे पड़ जाते हैं ॥ २५ ॥

"अहो ! इन भारतवासियोका कैसा सौभाग्य है!

जब ये यज्ञमें भिन्न-भिन्न देवताओंके उद्देश्यसे

अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्यादिके

योगसे श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस

प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामोंसे पुकारे जानेपर सम्पूर्ण

कामनाओंके पूर्ण करनेवाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरिं ही

प्रसन्न होकर उस हविको ग्रहण करते हैं ॥ २६ ॥ यह ठीक

है कि भगवान्‌ सकाम पुरुषोंके माँगनेपर उन्हें अभीष्ट

पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान्‌का वास्तविक दान नहीं

है; क्योंकि उन बस्तुओंको पा लेनेपर भी मनुष्यके मनमें

पुनः कमना होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका

निष्कामभावसे भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात्‌ अपने

चरणकमल ही दे देते हैं--जो अन्य समस्त इच्छाओंको

समाप्त कर देनेवाले हैं ॥ २७॥ अतः अबतक स्वर्गसुख

भोग लेनेके बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ

कर्मोमि यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभावसे

हमें इस भारलवर्षमें भगवान्‌की स्पृतिसे युक्त मनुष्य-जन्म

मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करनेवालेका सव

प्रकारसे कल्याण करते हैं! ॥ २८ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--राजन्‌ ! राजा सगसके

परनि अपने यज्ञके घोड़ेको ददते हुए इस पृथ्वीको चारो

ओरसे खोदा था। उससे जम्बद्रीपके अन्तर्गत ही आठ

उपद्रीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगॉंका कथन

है॥ २९॥ वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुकल, आवर्तन, रमणक,

मन्दरहरिण, पाञ्चजन्य, सिंहल और लंका है ॥ ३०॥

भरतश्रेष्ठ ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, ठीक

वैसा हो तुम्हें यह जप्वदरीपके वर्पोकः विभाग सुना

दिया ॥ ३१ ॥

के के के के के

बीसवाँ अध्याय

अन्य छः द्वीपो तथा लोकालोकपर्वतका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं--राजन्‌ ! अव परिमाण,

लक्षण और स्थितिके अनुसार प्लक्षादि अन्य द्रीपोकि

वर्षविभागका वर्णन किया जाता है ॥ १ ॥ जिस प्रकार मेर

पर्वत जम्बूद्वीपसे घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप भी

अपने ही समान परिमाण और विस्तारवाले खारें जलके

समुद्रसे परिवेष्टितं है। फिर खाई जिस प्रकार बाहरके

उपवनसे घिरी रहती है, उसी प्रकार क्षारसमुद्र भी अपनेसे

दूने विस्तारवाले प्लक्षद्वीपसे चिरा हुआ है।

जम्बूद्वीपमें जितना बड़ा जामुनका पेड़ है, उतने ही

विस्तारवाला यहाँ सुवर्णमय प्लक्ष (पाकर) का वृक्ष है।

उसौके कारण इसका नाम प्लक्षद्वीप हुआ है। यहाँ सात

जि्बाओंताले अग्निदेव विराजते हैं । इस द्रीपके अधिपति

प्रियव्रतपुत्र महाराज इध्मजिद्न थे। उन्होंने इसको सात

वर्षों विभक्तं करिया और उन्हें उन वेकि समान हौ

नामवाले अपने पुत्रॉको सौंप दिया तथा स्वयं

अध्यात्मयोगका आश्रय लेकर उपरत हो गये ॥ २ ॥ इन

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