उत्तरपर्व ]
+ आनत्तर्य-तृतीयात्रत *
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कराये । इससे तीर्थवात्राका फल प्राप्त होता है। इसी प्रकार
ज्येष्ठ कृष्ण तृतीयाको सुवासिनी स्त्री उपवास करे ।
*स्कन्दमाता' की पूजा कर भोग लगाये। पञ्चगव्यका प्राइन
कर देवीके सामने शायन करे । प्रातःकाल ब्राह्मण-दम्पतिकी
पूजा करे। इससे कन्यादानक फल प्राप्त होता है।
आषाढ़ मासके शुक्ल पश्चकी तृतीयक सतीका पूजन कर
दहीका नैवेद्य समर्पित करे । गोभृङ्ग-जलक ग्राशन कर दायन
करे । प्रातः ब्राह्मण-दम्पतिका पूजन करे, इससे कन्यादानंका
फल प्राप्त होता है । पुनः आषाढ़ मासके कृष्ण पक्षकी तृतीयामें
कृष्पाण्डीका' पूजन कर गुड़ और घृतके साथ सत्तूका नैवेधच
अर्पित करें। कुदोदकका प्राशन कर शयन करे। प्रातःकाल
ब्राह्मण-दम्पतिकी पूजा करे । इससे गोसहस्न-दानका फल प्राप्त
होता है।
श्रावण मासके शुक्त पक्षकी तृतीयाको उपवासकर चन््र-
घष्टाका पूजन करें। कुल्माष (कुलथी) को नैवेद्य-रूपमें
समर्पित कर पुष्पोदकका प्रादान कर शयन करे, प्रातःकाल
ब्राह्मण-दम्पतिका पूजन करे । ऐसा करनेसे अभयदानका फल
प्राप्त होता है। इसी प्रकार श्रावणकी कृष्ण -तृतीयाको रुद्राणी"
नामसे पार्वतीका पूजन कर सिद्ध पिष्ड आदि नैवेद्यके रूपमें
समर्पित करे। तिल्कुटका प्राशन करे । प्रातः सपत्नीक
ब्राह्मणीका पूजन करे, इससे इषटपूर्त-यज्ञका फल प्राप्त
होता है।
भाद्रपद मासके शुक पक्षकी तृतीयामें 'हिमाद्रिजा' नामसे
पार्वतीका पूजन कर गोधूमका नैवेद्य समर्पित करे । श्वेत चन्दन
तथा गन्धोदकका प्रादान कर दायन करे। प्रातः सपत्रीक
ब्राह्मणका पूजन करे, इससे सैकड़ों उद्यान छगानेका फल प्राप्त
छोता है। भाद्रपद कृष्ण-तृतीयाको दुर्गाकी पूजा करे । गुड़युक्त
पिष्ट ओर फलका नैवेद्य समर्पित करे, गोमूत्रका प्रदान कर
शयन करे। प्रातः सपत्नीक ब्राह्मणकी पूजा करे । इससे
सदावर्तका फल प्राप्त होता है।
आधिनमें उपवासकर 'नारायणो' नमसे पार्वतीका
पूजनकर पक्कान्नका नैवेद्य समर्पित करे। रक्त चन्दनक प्राझन
कर रात्रिम शयन करे । प्रातः ब्राह्मण-दम्पतिका पूजन करे ।
इससे अम्रिहोत्र-यज्ञका फल प्राप्त होता है। आशिन
कृष्ण-तृतीयाको 'स्वस्ति' नामसे पार्यतीकी पूजा करे। गुड़के
साथ उणल्योदन समर्पित करे। कुसुंभके बीजोंका प्रदान कर
राज़िमें विश्राम करें। प्रातःकाल सपल्नीक आ्रह्मणकों भोजन
कराये । इससे गवाहिक (अन्न, घास आदिसे दिनभर गो-सेया
करने) का फल प्राप्त होता है।
कार्तिक मासके शुक्ल पक्षकी तृतीयाको 'स्वाहा' नामसे
पार्वतीका पूजनकर घृत, खाँड़ और खीरका नैवेद्य समर्पित
करे। कुँकुस, केसरका प्राशइन कर दायन करे और प्रातः
ब्राह्मण-दम्पतिकी पूजा करे । इससे एकभुक्त-ब्रतका फल प्राप्त
होता है। कार्तिककी कृष्ण-तृतीयाको 'स्वधा' नामसे पार्वतीका
पूजनकर मुँगकी खिचड़ीका नैवेद्य समर्पित करे और घीका
आइनकर रातमें शयन करे। प्रातः सपत्नीक ब्राह्मणका पूजन
करे । इससे नक्तत्रतका फल प्राप्त होता है।
इस प्रकार वर्षभर प्रत्येक मास एवं पक्षकी तृतीयाको
ब्रतादि करनेसे व्रती सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त और पवित्र हो जाता
है। वरत पूर्ण कर उद्यापन इस प्रकार करना चाहिये--
मार्गशीर्ष मासके शुकू पक्षकी तृतीयाकों उपवासकर
ज्ञास््र-रीतिसे एक मण्डप बनाकर सुवर्णकी शिव-पार्वतीकी
प्रतिमा बनवाये। उन प्रतिमाओकि नेत्रॉमें मोती और नीलम
लगाये। ओष्ठमिं मगा ओर कानोंमें रत्रकुष्डल पहनाये।
भगवान् दौकरको यज्ञोपवीत और पार्वतीजीको हारसे अलंकृत
कर क्रमशः श्वेत और रक्त वस पहनाये । चतुःसम (एक
गन्ध-दरव्य जो. कस्तूरी, चन्दन, कुँकुम और कपूरके
समान-भागके योगसे बनता है) से सुशोभित करे । तदनन्तर
गन्ध, पुष्प, धूप आदि उपचारसे मण्डलमे पूजनकर अगरुका
हवन करे । इसमें अपराजिता भगवतीकी अर्चना करे ।
मृत्तिकाका प्रदान कर रातमें जागरण करे । गीत, नृत्य आदि
उत्सव करे । सूर्योदयपर्यन्त जप करे । प्रातः उत्तम मण्डल
बनाकर मण्डलम शाव्यापर शिव-पार्यतीकी प्रतिमा स्थापित
करे । वितान, ध्वज, माल, किंकिणी, दर्पण आदिमे मण्डपको
सुशोभित करे, अनन्तर दिव -पार्वतीकी पूजा करे । सपनीक
ब्राह्मणक् भोजनादिसे संतुष्ट करे । पान निवेदित कर प्रार्थना
करे कि 'हे भगवान् शिव-पार्वती ! आप दोनों मुझपर प्रसन्न
होवें।' इसके बाद उच्छिष्ट स्थानक्तो पवित्र कर ठे । तत्पश्चात्
सुबर्णसे मण्डित सींग तथा चाँदीसे मण्डित खुरवाली, कौस्य-
दोहनपाजसे युक्त, प्रर वखरसे आच्छादित, घण्टा आदि