* पुराण परमे पुण्यं भविष्यं सर्वसौरूयदम् +
[ संक्षिप्त भव्ष्यपुराणाडु
करे । पुनः आचमन कर शुद्ध वल धारण करे और सगराक्षर
मन्त्र "ॐ खखोल्काय स्वाहा" से सूर्यभगवान्को अर्घ्यं दे
तथा हृदयम मनका ध्यान करे एवं सूरय -मन्दिरमे जाकर
सूर्यकी पूजा करे । सर्वप्रथम श्रद्धापूर्वकं पूरक, रेचक और
कुम्भक नामक प्राणायाम कर वायवी, आग्रेयी, माहेन्द्री और
वारुणी घारणा करके भृतशुद्धिको शैतिसे शरीरका शोषण,
दहन, स्तम्भन और प्रावन कर्के अपने शरीरकी शुद्धि कर के ।
अपने शुद्ध हृदयमें भगवान् सूर्यकी भावना कर उन्हें प्रणाम
करें। स्थुल, सूक्ष्म शरीर तथा इन्द्रियोंको अपने-अपने स्थानम
उपन्यस्त करे । “ॐ रब: स्वाहा इदयाय नपः, ॐ ख॑ स्वाहा
हिस्से स्वाहा, ॐ उल्काय स्वाहा दिखायै चचट्, ॐ याय
स्वाहा कवचाय हुम्, ॐ स्वँ स्वाहा नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ> हाँ
. स्वाहा अल्राय फट् ।'
--इन मनतरौसे अङ्गन्यास कर पुजन-सामग्रीक मूल-मन्त्रसे
अभिमन्त्रित जलद्रारा प्रोक्षण करे । फिर सुगन्धित पुष्पादि
उपचारोसे सूर्यभगवान्का पूजन करे । सूर्यनारायणकी पूजा
दिनके समय सूर्य-मूर्तिमं और रात्रिके समस अग्नि करनी
चाहिये । प्रधात्कालपे पूर्वाभिमुख, सायकालमें पश्चिमाधिमुख
तथा रु्रिमे उत्तराभिमुख होकर पूजन करनेका विधान दै । ' ॐ
खसोर्काय स्वाहा" इस सागक्षर मूल मन्त्रसे सूर्यमण्डलके
ब्रीच षर्दल-कपलका ध्यान कर उसके पध्ये सहस
किरणोंसे देदीप्यमान भगवान् सूर्यनारायणकी मूर्तिका ध्यान
करे । फिर रक्तचन्दन, करवीर आदि रक्तपुष्प, धूप, दीप,
अनेक प्रकारके नैवेद्य, वस्नाभूषण आदि उपचागेसे पूजन करे ।
अथवा रक्तचन्दनसे ताश्रपात्रमे षरदल-कमल बनाकर उसके
मध्यमे सभी उपचारोंसे भगवान् सूर्यनारायणका पूजन करे ।
छहों दलोंगें षटङ्भ-पूजन कर उत्तर आदि दिज्ञाओँमें सोमादि
आठ ग्रहोंका अर्चन करें और अष्टदिवयासपरौ तथा उनके
आयुधोंका भौ तत्तद् दिशाओँमें पूजन करे। नामके आदियें
प्रणब लगाकर नामको चतुर्थौ -विभक्तियक्त करके अन्तमें नमः
कहे-- जैसे "ॐ सोमाय नमः' इत्यादि । इस प्रकार
नामस्खोंसे सबका पूजन करे । अनन्तर व्योम-मुद्रा, रवि-
मुद्रा, पद्म-मुद्रा, महाश्वेत-मुद्रा और अद्न-मुद्रा दिखाये। ये
पाँच मुद्राएँ पूजा, जप, ध्यान, अर्ध्यं आदिके अनन्तर
दिख्वानी चाहिये।
इस प्रकार एक वर्षतक भ्रक्तिपूर्वक तन्मयताके स्वथ
भगवान् सूर्यनारायणक पूजन करनेसे अधीष्ट मनोरधोंकी प्राप्ति
होती है और बादमें मुक्ति भी प्राप्त होती है। इस विधिसे पूजन
करनेपर गोगो रोगसे मुक्त हो जाता है, धहीन धन प्राप्त करता
है, राज्यभ्रष्टको राज्य मिल जाता है तथा पुत्रहीन पुत्र प्राप्त
करता है। सूर्यनारायणका पूजन करनेवाल्म पुरुष प्रज्ञा, मेधा
तथा सभी समृद्धियोसे सम्पन्न होता हुआ चिरजीवी होता हैं।
इस विधिसे पूजन करनेपर कन्याको उत्तम वरकी, कुरूपा
स्वौको उत्तम सौभाग्यक तथा चिद्यार्थीको सद्ठिद्याकी प्राप्ति होती
है। ऐसा सूर्यभगवानने स्वयै अपने मुखसे कहा है। इस प्रकार
सूर्यभगवान्का पूजन करनेसे धन, धान्य, संतान, पशु आदिकी
नित्य अभियूद्धि होती है। मनुष्य निष्कम हो जाता है तथा
अन्तमे उसे सद्रति प्राप्त होती है। (अध्याय ४९)
-भ्अ--
भगवान् सूर्यके पूजन एवं त्रतोद्यापनका विधान, द्वाद आदित्योके
नाम और रथसप्तमी-्रतकी महिमा
भगवान् श्रीकृष्णाने कहा--साम्ब ! अब मै सुर्के
विशिष्ट अवसरोपर होनेवाले व्रत-उत्सव एवं पूजनकी
विधियोंका वर्णन करता हूँ, उन्हें सुनों। किसी मासके
जुकृपक्षकी साप्री, ग्रहण या संक्रान्तिके एक दिन-पूर्व एक
आर हविष्यान्नका भोजन कर सायंकालके समय भलीभाँति
आचमन आदि करके अरुणदेवक्म प्रणाम करना चाहिये तथा
सभी इन्द्रियॉंकों संघतकर भगवान् सूर्यका ध्यान कर रात्रिं
जमीनपर कुशकी ग्ाय्वापर शायने करना चाहिये। दूसरे दिन
प्रातःकाल उठकर विधिपूर्वक स्त्रान सम्पन्न करके संध्या करे
तथा पूर्वोक्त मन्त्र “ॐ खस्वोल्काय स्वाहा' क्र जप एवं
सूर्यभगवान्की पूजा करे । अग्निको सूर्यतापके रूपमें समझकर
केटी बनाये और संक्षेपे हवन तथा तर्पण करे । गायत्री- मन्त्रसे
प्रोक्षणकर पूर्वाग्र और उत्तराग्र कुशा बिखाये | अनन्तर सभी
पात्रोंका शोधन कर दो कुशाओंकी प्रादेशमात्रकौ एक पतित्री
खनाये। उस पवित्रेसे सभौ वस्तुओंका प्रोक्षण करे, घीको
अपरिपर रखकर पिघला ले, उत्तरमे ओर पात्र उसे रख दे,