२२ * पुराणं परमं पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् «
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाडुू
मनुष्य धर्मात्मा, नीरोग, सत्यवादी होते हुए चार सौ वर्षोतक
जीवन धारण करते हैं। फिर त्रेता आदि युगोंमें इस सभो
वर्षोंका एक चतुथौश न्यून हो ज्यता है, यथा त्रेताके मनुष्य तीन
सतै वर्ध, द्रापरके दो सौ वर्ष तथा कलियुगके एक सौ वर्षतक
जीवन धारण करते हैं। इन च्रे युगेकि धर्म भी भिन्न-भिन्न
होते हैं। सत्ययुगमें तपस्या, त्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ और
कलियुगमें दान प्रधान धर्म मानय गया है।
पर द्युतिमान् परमे सृश्टिकी रक्षाके लिये अपने
मुख, भुजा, ऊर और चरणोसे क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, चैशय
तथा झुद्र--इन चार वर्णोंको उत्पन्न किया और उनके लिये
अलग-अलग कमौको कल्पना को। ब्राह्मणोंके त्वयि पढ़ना-
पढ़ाना, यज्ञ करना यज्ञ कराना तथा दान देना और दान
लेना--ये छः कर्म निश्चित किये गये है । पढ़ना, यज्ञ करना,
दान देना तथा प्रजाओंका पालन आदि कर्म क्षत्रियोंके त्यि
नियत किये गये हैं। पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, पशुओंकी
रक्षा करना, खेती-व्यापारसे धनार्जन करना--ये काम
खैद्योंके लिये निर्धारित किये गये और इन तोनों वणे सेवा
करना--यह एक मुख्य कर्म शुद्रोंका नियत किया गया है ।
पुरुषकी देहमें नाभिसे ऊपरका भाग अत्यन्त पवित्र माना
गया है। उसमें भी मुख प्रधान है। ब्राह्मण ब्रह्गके मुख
(उत्तमाङ्ग) से उत्पन्न हुआ है, इसलिये ब्राह्मण सबसे उत्तम
हैं, यह वेदकी वाणी है। ब्रह्माजीने बहुत काछतक तपस्या
करके सबसे पहले देवता और पितरोंकों हव्य तथा कच्य
पहुँचानेके लिये और सम्पूर्ण संसारकी रक्षा करने-हेतु
ब्राह्मणकों उत्पन्न किया । दिरोभागसे उत्पन्न होने और वेदको
धारण करनेके करण सम्पूर्ण संसरारका स्वामी धर्मतः
ब्राह्मण ही है । सब भूतों (स्थावर-जङ्गमरूप पदार्थों) मे प्राणो
(कीट आदि) श्रेष्ठ रै, प्राणियमें बुद्धिमे व्यवहार करनेवाले
पशु आदि श्रेष्ठ र । बुद्धि रखनेवाले जीवॉमें पनुष्य श्रेष्ठ है और
कृतबुद्धियोंघें कर्म करनेवाले तथा इनसे त्रह्मवेत्ता--ग्रह्मज्ञानी
श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणका जन्य धर्म-सम्पादन करनेके लिये है और
धर्पीचरणसे ब्राह्मण ब्रह्मत्व तथा ब्रह्मलोकको प्राप्त करता है ।
राजा झतानीकने पूछा--हे महामुने ! ब्रह्मलोक और
ब्रह्मत्व अति दुर्कभ हैं फिर ब्राह्मणमें कौनसे ऐसे गुण होते है,
जिनके कारण वह इन्हें प्राप्त करता है। कृपाकर आप इसका
वर्णन करें।
सुमन्तु मुनि बोले--हे राजन्! आपने बहुत ही
उत्तम बात पूछी है, मैं आपको वे बातें वताता रहँ, उन्हें
ध्यानपूर्वक सुनें ।
जिस ब्राह्मणके वेदादि दाखरॉपें निर्दिष्ट गर्भाधान. पुंसवन
आदि अड़तालीस संस्कारं विधिपूर्वक हुए हों, वही ब्राह्मण
ऋह्मलोक और ब्रह्मत्वकों प्राप्त करता है। संस्कारं ही
ऋह्मत्व-प्रािका मुख्य कारण है, इसमें कोई संदेह नहीं।
राजा झतानीकने पूछा--महात्मन् ! वे संस्कार
कौनसे हैं, इस विषयमे मुझे महान् कौतृहल हो रहा है।
कृपाकर आप इन्हें बतायें।
सुपन्तुजी ओले राजन् ! येदादि झाखोंमें जिन
संस्कारेंका निर्देश हुआ है उनका मैं वर्णन करता हुँ--
गर्भाधान, पुंसबन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण,
अम्नप्राशन, चूडाकर्म, उपनयन, चार प्रकारके तेदत्नत,
वेदख्रान, विवाह, पश्षमहायज्ञ (जिनसे देवता, पितरो, मनुष्य,
भूत और ब्रह्मकी तृप्ति होती है), सप्तपाकयज्ञ-संस्था--
अष्टकाइय, पार्वण, श्रायणी, आग्रहायणी, चैत्री { शुखगव)
तथा आश्चयुजी, सप्तहवि्यज्ञ-संस्था--अप्रयाधान, अग्रिहोत्र,
दर्श-पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूदपशुबन्ध, सौत्रामणी और
सप्तस्रोम-संस्था--अग्निप्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोड,
वाजपेय, अतिरात्र और आक्रर्याप--ये चालीस ब्राह्मणके
संस्कार है । इनके साथ ही ब्राह्मणमें आठ आत्मगुण भी
अवदय होने चाहिये, जिससे अकी प्राप्ति होती है। ये आठ
गुण इस प्रकार हैं--
अनसुया दया क्षान्तिरनायास॑ च मड्रूम् ।
अकार्पण्य॑तथा शौचमस्पृष्ठा च कुरूदह ॥
(क्रष्टपर्व २। १५७५)
"अनसुया (दूसरोंके गुणोंमें दोष-बुद्धि नहीं रखना),
दया, क्षमा, अनायास (किसी सामान्य बातके पौरे जानकी
याजी न लगाना), मङ्गल (माङ्गलिक वस्तु ओकर धारण),
अकार्पण्य (दीन वचन नहीं बोलना और अत्यन्त कृपण न
बनना), शौच (याहायभ्यनरकी शुद्धि) और अस्पृहा- ये
आठ आत्मगुण रै" इनको पूरी परिभाषा इस प्रकार है--