ब्राह्मपर्त ]
* सौर-धर्मकी महिमाका वर्णन, ब्रह्माकृत सूर्य-स्तुति *
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कुलीन, अल्कुता कन्या निर्धन विद्धान् द्विजको देना कन्यादान
कहा जाता है । मध्यम या उत्तम नवीन क्खका दान चख्रदान
कहा जाता है । एक मासमें दो सौ चालीस प्रासोका! भक्षण
करना चान्द्रायण -चत कहलाता रै । सभी शाख्तरोंके जातः तथा
तपस्थापरायण जितेन्द्रिय ऋषियों एवं देवॉसे सेवित जल-स्थान
तीर्थ कहा जाता है। सूर्यसम्बन्धी स्थानॉंकों पुण्य-क्षेत्र कहा
जाता है। उन सूर्यसम्बन्धी क्षेत्रोंमें मरनेवाला व्यक्ति सूर्य-
सायुज्यको प्राप्त करता है । तीर्थेमिं दान-देनेसे, उद्यान लगाने एवं
देवालय, धर्मशात्त्र आदि बनवानेसे अक्षय फल प्राप्त होता
है। क्षमा एवं निःस्पृहता, दया, सत्य, दान, शील, तप तथा
अध्ययन --इन आठ अङ्गसे युक्त व्यक्ति श्रेष्ठ पात्र कहा जाता
है। भगवान् सूर्यम भक्ति, क्षमा, सत्य, दसों इन्द्रियॉका
बिनिग्रह तथा सभीके प्रति मैत्रीभाव रखना सौर-धर्म है।
जो भक्तिपूर्वक भविष्यपुराण लिखवाता है, वह सौ कोटि
युग वर्षोतक सूर्यछोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो सूर्यमन्दिरका
निर्माण करयाता है, उसे उत्तम स्थानकी प्राप्ति होती है।
(अध्याय १७१-१७२)
सौर-धर्मकी महिमाका वर्णन, ब्रह्माकृत
सूर्य-स्तुति
राजा श्तानीकने कहा--क्राह्मणश्रेष्ट| आप सौर-
धर्मका पुनः विस्तारे वर्णन कीजिये ।
सुमन्तु मुनि बोले-- पहावाहो ! तुम धन्य हो, इस
छोकमें सौर-धर्मका प्रेमी तुम्हारे समान अन्य कोई भौ राजा
नहीं है । इस सम्बन्धे मैं आपको प्राचीन काटमे गरुड एवै
अरुणके बीच हुए संवादको पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ । आप इसे
ध्यानपूर्वक सुनें ।
अरूणने कहा-- खगश्रेष्ठ ! यह सौर-घर्म अज्ञान-
सागरे निमग्र समस्त प्राणियोंक/ उद्धार करनेवाला है।
पक्षिराज ! जो लोग भक्तिभावसे भगवान् सूर्यका स्मरण-
कीर्तन और भजन करते हैं, वे परमपदको प्राप्त होते हैं।
खगाधिप ! जिसने इस लछोकमें जन्म ग्रहणकर इन देवेश
भगवान् भास्करकी उपासना नहीं की, वह संसारके फ्रेशॉमें ही
निमग्न रहता है। मनुष्य-जीवन परम दुर्लभ है, इसे प्राप्त कर
जिसने भगवान् सूर्यका पूजन किया, उसीका जन्म लेना सफल
है। जो श्रद्धा-भक्तिसे भगवान् सूर्यका स्मरण करता है, वह
कभी किसी प्रकारके दु-खक भागी नहीं होता।
जिन्हें महान् भोगेति सुस्त्र-प्राप्तिकी कामना है तथा जो
राज्यासन पाना चाहते हैं अथवा स्वर्गीय सौभाग्य-प्राप्तिके
इच्छुक हैं एवं जिन्हें अतुल कान्ति, भोग, त्याग, यडा, श्री,
सौन्दर्य, जगत्की ख्याति, कीर्ति और धर्म आदिकी अभिलाषा
है, उन्हें सूर्यकी भक्ति करनी चाहिये।
जो परम श्रद्धा-भावसे भगयान् सूर्यकी आराधना करता
है, वह सभी पापोंसे मुक्त हो जाता टै । विविध आकारवालो
इकिनियां, पिशाच और राक्षस अथवा कोई भी उसे कुछ भी
पीड़ा नहीं दे सकते। इनके अतिरिक्त कोई भी जीव उसे नहीं
सता सकते । सूर्यकी उपासना करनेवाले मनुष्यके शत्रुगण नष्ट
शो जाते हैं और उन्हें संग्राममें विजय प्राप्त होती है। वीर ! यह
नीरोग हेता है। आपत्तियाँ उसका स्पर्शतक नहीं कर पातीं।
सुर्योपासक मनुष्यकी घन, आयु, यज्ञ, विद्या और सभौ
प्रकारके कल्याण-मङ्गलकौौ अभिवाद्धि होती रहती है, उसके
सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं।
ग्रह्माजीने भगवान् सूर्यकी आराधना कर ब्राह्म-पदकी
प्राप्ति की थी) देवोंके ईदी भगवान् विष्णुने विष्णुत्व-पदको
सूर्यके अर्चनसे ही प्राप्त किया है। भगवान् शंकर भी भगवान्
सूर्यकी आराधनासे ही जगन्नाथ कहे जाते हैं तथा उनके
(-्ुक्क पक्षे प्रतिदिन एक-एक प्रासकी वुद्धि तथ कृष्ण पक्षमें एक-एक ग्रासकी न्यूजताके नियमकर लन करनेसे दो सौ चालौस प्स
एक मासमें होते दै ।
२-चानदरयण्के मुख्य शने भेद हैं--यव-मध्य, फिपीलिका-मध्य और जिशु-चान्द्रायण। यव -ध्यमे झुक प्तक प्रतिपदासे खरप्म कर
ूर्िमाक्ये पंद्रह प्राससे केकर क्रमशः छटाते हुए आपायास्याको स्माप्र कर दिया आता रै । पिपौलिकामें पूर्नि्सको प्रारम्भ कर कृष्ण पक्षमें क्रमाः
एक-एक आस घटाते हुए उव्मावास्याक उपच्छस कर फिर पूर्णिमाकरे पृ किया जाता है और दिशु या सामान्य चान्ड्रायणमें प्रतिदिन आठ प्रात
लिया जाता है। इस प्रकार तीस दिम दो सौ चालीस ग्रास हो जाता हैं।