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« पुराणौ परम॑ पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

प्रसादसे ही उन्हें महादेवत्व-पद प्रा हुआ है एवं उनको ही

आगथनासे एक सहसत नेत्रोंयाले इन्द्रने भो इन्द्रत्वको प्राप्त

किया है। मातुवर्ग, देवगण, गन्धर्व, पिच्चाच, उरग, राक्षस

और सभी सुरोंके नायक भगवान्‌ सूर्यकी सदा पूजा किया

करते हैं। यह समस्त जगत्‌ भगवान्‌ सूर्यमें ही नित्य प्रतिष्ठित

है। जो मनुष्य अन्धकारनाशक भगवान्‌ सूर्यकी पूजा नहीं

करता, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका अधिकारी नहीं है।

पक्षिश्रेष्ट ! आपत्तिग्रस्त होनेपर भी भगवान्‌ सूर्यकों पूजा सदा

करणीय है। जो मनुष्य भगवान्‌ सूर्यकी पूजा नहीं करता,

उसका जीवन व्यर्थ है। प्रत्येक व्यक्तिकों देवाधिदेथ भगवान्‌

सूर्यकी पूजा-उपासना करके ही भोजने करना चाहिये। जो

सूर्यभक्त हैं, वे समस्त द्न्द्दोंके सहन करनेवाले, बोर,

नीति-विधि-युक्तचित्त, परोपकारपरायण तथा गुरूकी सेवामें

अनुगत रहते हैं। वे अमानी, बुद्धिषान्‌, असक्त, अस्पर्धायाले,

त्रिःस्पृह, शान्त, खात्पानन्द्‌, भद्र और नित्य स्वागतवादी होते

है। सूर्यभक्त अल्पभाषी, शुर, शास्त्रमर्मज्न, प्रसत्रमनस्कं

दौचाचारसम्पत्र ओर दाक्षिण्ययुक्त होते है ।

सूर्वके भक्त दम्भ, मत्सरता, तृष्णा एवं लोभसे वर्जित

हुआ करते है । यै शठ और कुत्सित नहीं होते । जिस प्रकार

कमलक्य पत्र जलसे निरति रहता है, उसी प्रकार सूर्यभक्त

मनुष्य विषयॉमें कभी लिप्त नहों होते। जबतक इन्द्रियॉंकी

शक्ति क्षीण नहीं होती, तबतक भगवान्‌ सूर्यकी आराधना

सम्पन्न कर लेनी चाहिये; क्योंकि मानव असमर्थ होनेपर इसे

नहीं कर सकता और ग्रह मानव-जीवन यों ही व्यर्थ चल्त्र

जाता है। भगवान्‌ सूर्यकी पृजाके समान इस जगते अन्य

करई भी धर्मका कार्य नहीं है । अतः देवदेवेश भगवान्‌ सूर्यका

पूजन करे । जो मानव धक्तिपर्वक दान्त, अज, प्रभु, देवदेवेदञा

सूर्यकी पूजा किया करते हैं, वे इस लोकम सुख प्राप्त करके

परम पदको प्राप्त हो जाते है । सर्वप्रथम ब्रह्माजीने अपने परम

प्रदषष्ट अन्तरात्मासे भगवान्‌ सूर्यकी पूजा कर अज्जलि बाँध कर

जो स्तोत्र कहा था, उसका भाय इस प्रकार हैं--

'बडैश्वर्यसम्पन्न, शान्त-चित्तसे युक्त, देवकि मार्ग-प्रणेता

एवं सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान्‌ सूर्यको मैं सदा प्रणाप करता हूँ। जो

देवदेवेश दाश्च, शोभन, शुद्ध, दिवस्पति, चित्रभानु, दिवाकर

और ईशॉके भी ईडा हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ। समस्त

दुः खोक हर्ता, प्रसन्नवदन, उत्तमाङ्ग, वरके स्थान, वर-प्रदाता,

वरद तथा वरेण्य भगवान्‌ विभावसुको मैं प्रणाम करता हूँ।

अर्क, अर्यमा, इन्द्र, विष्णु, ईदा, दिवाकर्‌, देवेश्वर, देवरत और

विभावसु नामधारी भगवान्‌ सूर्यको मैं प्रणाम करता हूँ।'

इस स्तुतिका जो नित्य श्रवण करता है, वह परम कीर्तिको

प्राप्तकर सूर्यलोकको प्राप्त करता है।

(अध्याय ६७३-१७४ )

सौर-धर्ममें शान्तिक कर्म एवं अभिषेक-विधि

गरुड़जीने पूछा--अरूण ! जो आधि-व्याधिसे पीड़ित

और उपघातके नाशक, सभी रोगो एवं राज-उपद्रवोको शामन

एवं येगी, दुष्ट ग्रह तथा शत्रु आदिसे उत्पीडित और विनायकसे करनेवाले भगवान्‌ सूर्यकी आराधना करनी चाहिये ।

गृहीत हैं, उन्हें अपने कल्याणके लिये क्या करना चाहिये ?

आप इसे बतलनेकी कृपा करें।

गरुडजीने पूछा--द्विजश्रेष्ठ ! ब्रह्मवादिनीके शापसे

मैं पखविहीन हो गया हूँ, आप मेरे इन अद्गोको देखें। मेरे

अरुणजी बोले--विविध गोगोंसे पीड़ित, शत्रुओंसे लिये अब कौन-सा कार्य उपयुक्त है ? जिससे मैं पुनः

संतप्त व्यक्तियोंके लिये भगवान्‌ सूर्यकी आग्रधनाके अतिरिक्त

अन्य कोई भी कल्याणकारी उपाय नही है, अतः ग्रहोंके घात

पंखयुक्त हो जाऊँ।

अरुणजी बोले - गरुड ! तुम शुद्ध-चित्तसे मन्धकारको

६- भगवन्त भगकरं शान्तचित्तमनुततमम्‌ । देखमार्गप्रणेतार प्रनतोऽस्मि रविं सदा॥

शात शोभनौ शुद्ध चित्रभानुं दिवस्पतिम्‌ | देखदेखेसमोशेश प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्‌ ॥

सर्वदुःखहरे रेवं सर्वदुःखहरे रविम्‌ । वराननै वराड़ें च यरस्यानं यरफ़्दम्‌ ॥

वरेण्य चरदं॑नित्यै प्रणलोऽस्मि विभावसुम्‌ | अर्कमर्यमर्ण चेन्र॑विष्णुमोहौ दिवाकरम्‌ ॥

देवेश्वरं देवरतै प्रणतोऽस्मि विभावसुम्‌ । य इट भगुयननित्यै अह्मणोक्त॑ स्तयं परम्‌ ।

स्र॒ हि कीर्ति पै प्रष्य पुनः सूर्यपुरें यजेत्‌ ॥

(ब्रह्मपर्व १७४ | ३६-४० )

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