ज्राह्मपर्य ]
« सूरयचक्रका निर्माण और सूर्य-दीक्षाकी विधि +
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भगवान् श्रीकृष्ण चोले-- सौम्य ! सूर्यनारायणके
चक्रमे कमर बनाकर पूर्वकी भाँति हदयमे स्थित भगवान्
पूर्वक चतुरध्न्ते विभक्ति और क्रिया लगाते हुए "नमः"
लूगाकर अङ्गन्यास एवं हृदयादि न्यास तथा पृजन करना
चाहिये। हवन करते समय नामके अन्ते "स्वाहा" शब्दका
प्रयोग करना चाहिये । यथा--' ॐ> खखोल्काय स्वाहा ।' 3*
खरवोल्काय चिदाहे दिवाकराय धीमहि। तन्नः सूर्य:
प्रचोदयात् ।' इन चौबीस अक्षरोवाली सूर्यगायत्रीका जप सभी
कर्मभि करना चाहिये, अन्यथा कर्मोंका फल प्राप्त नहीं होता ।
यह सूर्यगायग्री ब्रह्मगोत्रवाली सर्वतत्वमयी तथा परम पवित्र है
एवं भगवान् सूर्यको अत्यन्त प्रिय है, इसल्ल्ये प्रयत्रपूर्वक
मन्त्रके ज्ञान और कर्मकी खिघिकों जानना चाहिये। इससे
अभीष्ट मनोरथ सिद्ध होता है।
साघ्बने पूछा--भगवन् ! आदित्य-मण्डलमे किसकी,
किस कार्यके ल्थ्यि और कैसी दीक्षा होनी चाहिये ? इसे वतायै ।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले--ब्राह्मण, कषत्रिय, वैदय और
कुलीन दुद्र. पुरुष अधवा स्त्री भी सूर्य-मण्डलमें दीक्षाके
अधिकारी हैं। सूर्यशाख्रके जाननेवाले सत्यवादी, शुचि,
चेदवेत्ता ब्राह्मणकों गुरु बनाना चाहिये और भक्तिपूर्वक उन्हें
प्रणाप करना चाहिये। पष्ठी तिथिमें पूर्वोक्त विधिके अनुसार
अंग्रि-स्थापन कर बिधिपूर्वक सूर्य तथा अग्निकी पूजा करके
हवन करना चाहिये । तदनन्तर गुरु पवित्र शिष्यकों कुशों और
अक्षतोंकि द्वारा उसके प्रत्येक अज्ञमें सूर्यकी भावना कर उसका
स्पर्श करे । शिष्य वस्यदिसे अलंकृत होकर पुष्प, अक्षत, न्थ
आदिसे भगवान् सूर्यकी पूजा करे तथा यह भी दे। आदित्प,
वरुण, अग्रि आदिका अपने हृदयमें ध्यान को । घी, गुड़,
दधि, दूध, चावल आदि रखकर तीन आर जलसे अप्निकतं
सिंचितकर अश्रिमे पुनः हवन करें । उसके बाद गुरु शिष्टाचार-
स्वरूप दिष्यकों दातत दे । वह दातून दूधवाले वृक्षका हो और
उसकी लंयाई बारह अङ्गुल होनी चाहिये । दातून करनेके
पश्चात् उसे पूर्व-दिज्ञामें फेंक देना चाहिये, उस दिश्ाप देखे
नहीं । पूर्व, पश्चिम और ईशान कोणको ओर मुख करके दातून
करना शुभ होता है और अन्य दिशाओमें दातुत करना अशुभ
माना गया है।
निन्दित दिशे दन्तथावनसे जो दोष लगता है, उसकी
शान्तिके तिथये पूजन-अर्चन करना चाहिये। पुनः गुरु शिष्यके
अज्ॉका स्पर्श करे । सूर्यगायत्रीका जपपूर्वक उसके आका
स्पर्श करे । इन्द्रियसंयमके लिये शिष्यसे संकल्प कराये।
तदनन्तर आदिर्वादि देकर उसे शायन करनेकी आज्ञा दे । दुसरे
दिन आचमनकर सूर्यको प्रातःकाल नमस्कार कर अभि-स्थापन
करें और हथन करें। स्थप्रमें कोई शुभ संवाद सुने अधवा
दिनमें यदि कोई अशुभ लक्षण दिखायी पड़े तो सूर्यनारायणको
एक सौ आहूति दे । स्वप्रमें यदि देवमन्दिर, अग्नि, नदौ, सुन्दर
उद्यान, उपवन, पत्र, पुष्प, फल, कमल, चाँदी आदि और
वेदवेत्ता ब्राह्मण, शौर्यसम्पन्न राजा, धना क्षत्रिय, सेवारें
सेलप्र कुलीन शुद्र, तत्वको जाननेवास्म, सुन्दर भाषण
देनेवाला अथवा उत्तम वाहनपर सवार, यस्व, रत्न आदिकी
प्राप्ति, वाहन, गाय, धान्य आदि उपकरण अथवा समृद्धिकी
प्राप्ति आदि स्वप्रमे दिखायी दे तो उस स्वप्रको शुभ मानना
चाहिये । शुभ कर्म दिखायी पड़े तो सब कार्य शुध ही होते है ।
अनिष्टकारक स्वप्र दिखायी पड़नेपर सा््मीको सूर्यचक्र
लिखकर सूर्यदेवको पूजा करनी चाहिये । ब्राह्मणों तथा गुरुको
संतुष्ट करना चाहिये। आदित्यमण्डल पवित्र और सभीकों
मुक्ति प्रदान करनेवाल्त्र है। इसलिये अपने मनमें ही आदित्य-
मण्ट्का ध्यान कर एक सौ आहुति देनी चाहिये। इस
क्रमसे दौक्षा-विधि और मन्रका अनुसरण करते हुए
आदिल्यम्रण्डलपर पुष्पाञ्जलि प्रदान करे। इससे व्यक्तिके
कुलका उद्धार हो जाता है। सूर्य्रोक्त पुणणादिका श्रवण करना
चाहिये। पुजनके काद विसर्जन करें। सूर्या दर्शन करनेके
पश्चात् ही भोजन करना चाहिये । प्रतिमाकी छायाका ओर न ही
ह -नशषत्र-योग और तिथिका लन करना चाहिये। सूर्य
अयने, ऋतु, पक्ष, दिन, काल, संवत्सर आदि सभीके
अधिपति हैं और वे सभीके पूज्य तथा नमस्कार करने योग्य
हैं। सूर्यकी स्तुति, वन्दना और पूजा सदा करनी चाहिये। पन,
वाणी और कर्मसे देवताओंकी निन्दता परिस्थाग करना
चाहिये। हाथ-पाँव धोकर, सभी प्रस्कारके शोको त्यागकर
शुद्ध अन्तःकरणसे सूर्यको नमस्कार करना चाहिये। इस प्रकार
संक्षेपसे चैन सूर्य-दीक्षाकी विधिको कहा है, जो सुखभोग और
मुक्तिको प्रदान करनेवाली है। (अध्याय १४९)
॥"गीके