झड़ अधर्ववेद् संहिता घाग-२
३२११. आनन्दा मोदाः प्रमुदो5 भीमोदमुदश्च ये ।
उच्छिष्टाज्जज्िरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रितः ॥२६ ॥
आनन्द, मोद, प्रमोद प्रत्यक्षीभूत आनन्द और स्वर्गीय देवगण, ये सभी उच्छिष्ट बरहम से ही उत्पादित हुए हैं ॥
३२१२. देवाः पितरो मनुष्या गन्धर्वाप्सरसश्च ये।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रित: ॥२७ ॥
देवगण पितर्, मनुष्य, गन्धर्व, अप्सराएँ और देवता, ये सभी उच्छिष्ट बह्म से ही उत्पादित हैं ॥२७ ॥
[१० - अध्यात्म सूक्त ] रन
[ ऋषि- कौरुपथि । देवता- अध्यात्म और मन्यु । छन्द- अनुष्टप् , ३३ पश्यापंक्ति । ]
इख सूक्त के देवता अध्यात्प न्यु हैं। कोश ग्रंथों के अनुसार पन्यु के अर्थ अनेक हैं, यहाँ उत्साह एवं अहंकार ठीक बैठते
हैं। प्रवम मंत्र पें मन््यु अपनी फामी को संकल्प के घर से प्राप्त करता है। पन्यु आत्मतत्व पर आधारित उत्साह या अहेकार( स्ववोध)
संकल्प के घर में अपनी सहरर्मिणी संकल्पशक्ति से विवाह रचाता है । वह आत्म स्फूर्त, उत्साह, संकर्पशक्ति के संयोग से सृष्टि
(रचना) करता है। उसमें वर पक्ष एवं कन्या पक्ष के रूप में अनेक प्रवृत्तियाँ, शक्तिधाराएँ सहयोग करके उस महोत्सव को सफल
बनाती हैं। प्रारंभ के मंत्रों मे संत्वना के घटकों देवशक्तियों का वर्णन करते हुए बाद के मंत पर सृजित शरीरों के निर्माण और
उनी विशेषताओं का वर्णन है। यह वर्णन मनुष्यों, प्राणियों के शरीरों से लेकर प्रकृति के विराट् शरीर तक सर्वत्र लागू होता
है। मंत्रार्थ इस ढंग से करने के प्रयास किये गये हैं कि अध्येता विभिन्न दृष्टियों से उन्हें समझ सके-
३२१३. यन्मन्युर्जायामावहत् संकल्पस्य गृहादधि ।
क आसं जन्याः के वराः क उ ज्येष्ठवरो ऽभवत् ॥९ ॥
जिस समय मन्यु (आत्म स्फूर्ति, उत्साह) ने संकल्पबल के गृह (स्रोत) से अपनी संकल्पशक्ति रूपी स्ली को
प्राप्त किया, उस समय कन्यापक्ष के लोग कौन थे ? वर पक्ष के लोग कौन थे ? उनमें किसे श्रेष्ठ वर की संज्ञा से
विभूषित किया गया था ? ॥१॥
३२९४. तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवि । त आसं
जन्यास्ते वरा ब्रह्म ज्येष्ठवरो ऽभवत् ॥२ ॥
अर्णव (सृष्टि से पूर्व सृष्टि के मूल सक्रिय तत्त्व के महासागर) के बीच तप और कर्म ये दो पक्ष थे, वे ही वर
पक्षीय और कन्या पक्षीय लोग थे तथा ब्रह्म ही उस समय सर्वश्रेष्ठ वर थे ॥२ ॥
३२१५. दश साकमजायन्त देवा देवेभ्यः पुरा। यो वै
तान् विद्यात् प्रत्यक्षं स वा अद्य महद् वदेत् ॥३ ॥
अधिष्ठाता देवों से दस देवता उत्पन्न हुए (उनका वर्णन अगले मंत्र में है) । जिस साधक ने प्रत्यक्ष
रूप में इनका निश्चित ही साक्षात्कार किया, वही ज्ञानी मनुष्य देश, काल आदि से रहित विराट् ब्रह्मज्ञान
को कहने में समर्थ है ॥३ ॥
३२१६. प्राणापानौ चक्षुः श्रोन्नमक्षितिश्न क्षितिश्च या ।
व्यानोदानौ वाङ् मनस्ते वा आकूतिमावहन् ४ ॥
प्राण, अपान् नेत्र श्रवणेन्द्रिय, क्षीणता रहित-ज्ञानशक्ति, क्षीणतायुक्त भौतिक शक्ति, व्यान (अन्नरस को संचारित
करने वाली वृत्ति) , दान (ऊपरी उद्गार, व्यापार को चलाने वाली प्रक्रिया) , वाणी और मस्तिष्क, ये दस प्राण
निश्चित ही संकल्पशक्ति को धारण करते हैं ॥४ ॥