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शालग्राम-मूर्तियोंके लक्षण

भगवान्‌ हयग्रीव कहते हैं-- ब्रह्मन्‌! अब मैं

शालग्रामगत भगवन्मूर्तियोंका वर्णन आरम्भ करता

हूँ, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं।

जिस शालग्राम-शिलाके द्वारमें दो चक्रके चिह्न हों

और जिसका वर्ण श्वेत हो, उसकी “वासुदेव'

संज्ञा है। जिस उत्तम शिलाका रंग लाल हो और

जिसमें दो चक्रके चिह्न संलग्न हों, उसे भगवान्‌

*संकर्षण'का श्रीविग्रह जानना चाहिये। जिसमें

चक्रका सूक्ष्म चिह्न हो, अनेक छिद्र हों, नील वर्ण

हो और आकृति बड़ी दिखायी देती हो, वह

“प्रद्युम्न' की मूर्तिं है । जहाँ कमलका चिह्न हो,

जिसकी आकृति गोल और रंग पीला' हो तथा

जिसमें दो-तीन रेखाएँ शोभा पा रही हों, यह

"अनिरुद्ध का श्रीअड्ग है । जिसकी कान्ति काली,

नाभि उन्नत और जिसमें बड़े-बड़े छिद्र हों, उसे

"नारायण" का स्वरूप समझना चाहिये। जिसमें कमल

और चक्रका चिह्न हो, पृष्ठभागमें छिद्र हो और जो

बिन्दुसे युक्त हो, वह शालग्राम "परमेष्ठी" नामसे

प्रसिद्ध है। जिसमें चक्रका स्थूल चिह्न हो, जिसकी

कान्ति श्याम हो और मध्यमें गदा-जैसी रेखा हो,

उस शालग्रामकी "विष्णु" संज्ञा है॥ १--४॥

नृसिंह-विग्रहमें चक्रका स्थूल चिह्न होता है।

उसकी कान्ति कपिल वर्णकी होती है और उसमें

पाँच बिन्दु सुशोभित होते हैं।*

वाराह-विग्रहमें शक्ति नामक अस्त्रका चिह्न

होता है। उसमें दो चक्र होते हैं, जो परस्पर विषम

(समानतासे रहित) हैं। उसकी कान्ति इन्द्रनील

मणिके समान नीली होती है। वह तीन स्थूल

रेखाओंसे विदित एवं शुभ होता है। जिसका

पृष्ठभाग ऊँचा हो, जो गोलाकार आवर्तचिहसे

युक्त एवं श्याम हो, उस शालग्रामकी “कूर्म'

(कच्छप) संज्ञा है" ॥ ५-६॥

जो अंकुशकी-सी रेखासे सुशोभित, नीलवर्णं

एवं बिन्दुयुक्त हो, उस शालग्राम-शिलाको ' हयग्रीव '

कहते है । जिसमें एक चक्र और कमलका चिद

हो, जौ मणिके समान प्रकाशमान तथा पुच्छाकार

रेखासे शोभित हो, उस शालग्रामको "वैकुण्ट'

समझना चाहिये ^ जिसकी आकृति बडी हो,

जिसमें तीन बिन्दु शोभा पाते हों, जो काँचके

समान श्वेत तथा भरा-पूरा हो, वह शालग्राम-

शिला मत्स्यावतारधारी भगवान्‌की मूर्ति मानी

जाती है। जिसमें वनमालाका चिह्न और पाँच

रेखाएँ हों, उस गोलाकार शालग्राम-शिलाकों

*श्रीधर' कहते हैं? ॥ ७-८ ॥

गोलाकार, अत्यन्त छोटी, नीली एवं बिन्दुयुक्त

शालग्राम-शिलाकी “वामन' संज्ञा है। जिसकी

कान्ति श्याम हो, दक्षिण भागमें हारकी रेखा और

बायें भागमें बिन्दुका चिह हो, उस शालग्राम-

१. चाचस्पत्कोषे संकलित गरुडपुराण (४५वें अध्याय) -के निम्नाड्लित वचनसे "प्रद्युम्न -शिलाका पीतवर्णं सूचित होत है ।' यया ~

"अथ प्रदुप्नः सूक्ष्मचक्रस्तु पीतकः ।

२. उक्त ग्रन्थके अनुसार हौ अनिरुद्धका नौलवर्ण सूचित होता है । यथा -* अनिरुड्धस्तु वर्तुलो नीलो द्वारि परिरेखश्च।'

३. पृथुचक्रो वृ्िंहोऽथ कप्लोऽव्यात्त्रिविन्ुकः । अथवा पञ्चयिन्दुस्तत्पूजनं ब्रह्मचारिणाम्‌ ॥ (इति गरुढपुरागेऽपि)

४, चराः शुभलिद्गोऽख्वाद्‌ विधमस्थड्रिचक्रक: । नीलस्तिरेखः स्थूलः ॥

कूर्ममूर्तिः स

हाररेखश्च पातु वः । (ग०पु)

(ग०पु०)

बिन्दुमान्‌ । कृष्णः स॒वर्तुलावर्त: चोफऋापृष्ठक:। (ग०पु०)

पञ्चरेखः सकौस्तुभः । वैकुण्ठो मणिरत्नाभ एकचक्राम्युजोऽसितः॥ (गपु)

पञचेखोऽखच्याद्‌ बनपालौ गदात्वितः । (श०पु०) ( वाचस्पत्यकोयसे संकलित)

चर्तुलो हस्वः कामचक्रः सुरेश्वरः । (गः पुर)

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