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वृषल, जघन्यज और शुद्र-ये शूद्रजातिके

नाम हैं। चाण्डाल एवं अन्त्यज जातियाँ वर्णसंकर

कहलाती हैं। शिल्पकर्मके ज्ञाताको कारु ओर

शिल्पी कहते हैं (इनमें बढ़ई, थवई आदि सभी

आ जाते हैँ ।) समान जातिके शिल्पियोकि एकत्रित

हुए समुदायको श्रेणि कहते है । यह स्त्रीलिङ्ग और

पिङ्गं दोनोंमें प्रयुक्त होता दै । चित्र बनानेवालेको

रङ्गाजीव और चित्रकार कहते हैं । त्वष्टा, तक्षा

और वर्धकि--ये बढ़ईके नाम हैँ । नाडिन्धम और

स्वर्णकार-ये सुनारके वाचक हँ । नाई (हजाम)-

का नाम है नापित तथा अन्तावसायी। बकरी

बेंचनेवाले गडरियेका नाम जाबाल और अजाजीव

है । देवाजीव और देवल--ये देवपूजासे जीविका

चलानेवालेके अर्थमें आते है । अपनी स्तियोकि

साथ नाटक दिखाकर जीवन-निर्वाह करनेवाले

नरको जायाजीव और शैलूष कहते हैं। रोजाना

मजदूरी लेकर गुजर करनेवाले मजूरेका नाम

भृतक और भृतिभुक्‌ है। विवर्ण, पामर, नीच

प्राकृत, पृथग्जन, विहीन, अपसद और जाल्म -

ये नीचके वाचक है । दासको भृत्य, दासेर ओर

चेटक भी कहते हैं। पटु, पेशल ओर दक्ष--ये

चतुरके अर्थम आते है । मृगयु ओर लुब्धक-ये

व्याधके नाम हैं। चाण्डालको चाण्डाल और

दिवाकीर्ति कहते है । पुताई आदिके काममें पुस्त

शब्दका प्रयोग होता है । पञ्चालिका और पुत्रिका-

पे पुतली या गुडियाके नाम है । वर्कर शब्द जवान

पशुमात्रके अर्थमें आता है (साथ ही वह बकरेका

भी वाचक है) । गहना रखनेके डब्बेको या कपड़े

रखनेकी पेटीको मञ्जूषा, पेटक तथा पेडा कहते

है। तुल्य ओर साधारण-ये समान अर्थके

वाचक है । इनका सामान्यतः तीनों लिङ्गं प्रयोग

होता है । प्रतिमा और प्रतिकृति-ये पत्थर आदिकी

मूर्तिके वाचक हैं। इस प्रकार ब्राह्मण आदि

वर्गोका वर्णन किया गया ॥ ४३--४९॥

ङस प्रकार आदि आरेय महापुराणमें 'कोशगत क्षत्रिय. वैश्य और जूब्रवर्गका वर्णन” नामक

तीन सौ छाछठवाँ अध्याय पूद्ध हुआ॥ ३६६ #

तीन सौ सड़सठवाँ अध्याय

सामान्य नाम-लिङ्ग

अग्निदेव कहते है -- मुनिवर! अब मैं सामान्यतः

नामलिङ्गोका वर्णन करूँगा (इस प्रकरणे आये

हुए शब्द प्रायः ऐसे होंगे, जो अपने विशेष्यके

अनुसार तीनों लिङ्गे प्रयुक्त हो सकते हैं), आप

उन्हें ध्यान देकर सुने । सुकृति, पुण्यवान्‌ और

धन्य-ये शब्द पुण्यात्मा और सौभाग्यशाली

पुरुषके लिये आते है । जिनकी अभिलाषा, आशय

या अभिप्राय महान्‌ हो, उन्हें महेच्छ और महाशय

कहते है । (जिनके हृदय शुद्ध, सरल, कोमल,

सुहृदय कहलाते है ।) प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ,

विज्ञ, निष्णात और शिश्चित- सुयोग्य एवं कुशलके

अर्थम आते हैं। वदान्य, स्थूललक्ष, दानशौण्ड

और बहुप्रद--ये अधिक दान करनेवालेके वाचक

है। कृती, कृतज्ञ ओर कुशल--ये भी प्रवीण,

चतुर एवं दक्षके ही अर्थम आते है । आसक्त,

उद्युक्त ओर उत्सुक -ये उद्योगी एवं कार्यपरायण

पुरुषके लिये प्रयुक्तं होते है । अधिक धनवान्‌को

इभ्य और आढ्य कहते है । परिवृढ, अधिभू,

दयालु एवं भावुक हों, वे इदयालु, सहृदय और | नायक और अधिप--ये स्वामीके वाचक है ।

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