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* अध्याय ३५० * ७३५

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तीन सौ पचासवाँ अध्याय

संधिके ' सिद्ध रूप

कुमार कार्तिकेय कहते हैं--कात्यायन ! | तवेदम्‌, सकलोदकम्‌, अर्धचोंउयम्‌, तबल्कारः',

अब सिद्ध संधिका वर्णन करूँगा। पहले ' स्वरसंधि" | सैषा, सैन्द्री, तवौदनम्‌,. खट्वौघोऽभवत्‌,`

बतलायी जाती है--दण्डाग्रम्‌, साऽऽगता, | इत्येवम्‌, व्यसुधीः, स्वलंकृतम्‌, पित्रर्थोपवनम्‌,

दधीदम्‌, नदीहते, मधूदकम, पितृषभः, लृकारः, | दात्री, नायकः, लावकः, नयः,” त इ, तिह नदीहते, मधूदकम्‌, ६, लृकारः', | दात्री,* नायकः, लावकः, नयः, त इह, तयिह

१. अक्षरोंके मेलनकों ' संधि" कहते है, संधिके साधारणतया पाँच भेद माते जाते ईै- (१) स्वरसंधि, (२) व्यज्ननसंधि, (३)

अनुस्वारसंधि, (४) विसर्गस॑ंधि और (५) स्वादिसंधि। अनुस्वारसंधिमें व्यजनका ' अनुस्वार" और अनुस्वारका ' व्यज्जन" बनता है; अतः

उसका व्यज्ञससंधिमें हौ अन्तर्भाव हो सकता है। ऐसे ही स्वादिसंधि भी उसीके अन्तर्गत है; क्योंकि ' शिवो5र्च्य:' इत्यादिमें विभकि-सकार

आदि हलूरूप हौ हैं। इस प्रकार मुख्यतः तीन ही संधियों हं ~ स्वर, व्यञ्जन और विसर्ग। कौमार-य्याकरणमें इन्हीं तीतँका नामतः उल्लेख

हुआ है। पाणिनि-व्याकरण तथा कौमार-व्याकरण --दोनों हौ मे र सूरो आधार मानकर प्रवृत्त हुए हैं, अतः दोनोंकी प्रक्रियामें

बहुत कुछ साम्य है। ।

२. जहाँ स्वर अक्षर विकृत हो वर्णानारसे मिले, वह 'स्वर-संधि' है; इसके मुख्यतः पाँच भेद है यणादेश, अयाघ्नादेश, य्‌-य्‌-

लोपादिश, अवडूढादेश तथा एकादेश । ' यणादेश 'के भौ चार भेद है-य्‌ व्‌ २ ल्‌। ये क्रमशः इ उ ऋ लू के स्थानमे कोई स्वर परे रहतेपर

होते है । अयाचयादेशके छः भेद है - अय्‌, अबू, आय्‌, आव्‌, यान्‍्तादेश और वान्तादेश । पहलेवाले चार आदेश क्रमशः ए, ओ, पे, भके

स्थातर्में कोई स्वर परे रहनेपर होते है । " यानतादेश ' पे, ओके स्थाने * यादि ' प्रत्यय परे रहनेपर होते हैं और ' वान्दे" ओ, ओके

स्थानमें वकारादि प्रत्यय परे होनेपर होते हैं। " ्‌-व्‌ लोपादेश', में अवर्भपूर्षक पदान्त "यू च्‌" को लोप होता है । "अश्‌ ' प्रत्याहार परे

होनेपर एङ्त "गो" शब्दकों अयङ्‌" आदेश होता है; ' अच्‌ ' परे रहनेपर तथा ' इन्द्र! शब्द परे रहनेपर भी यह आदेश होता है । जहाँ दो

अक्षरोंकि स्थाने एक आदेश हो, बह 'एकादेश' है। एकादेश-संधिके भो पाँच भेद हैं--गुण, वृद्धि, पूर्वरूप, पररूप और दीर्ष।'गुण-

एकादेश' चार हैं--ए, ओ, अर, अलू। ये क्रमश: अ+इ, अ+उ, अ+*ऋ, ठथा अ+सृके स्थानमे होते हैं। वृद्धि-संधिके भेद तीन हौ हैं--

दे, ओ, आरू। इनमें, पहला अ, आ, ए, ऐके स्थानमें; दूसरा अ, आ, ओ, ओके स्थानमे, तथा तीस अ, आ, ऋ, के स्थानमें होता

है। पदान्त ए, ओ से परे 'अ' हो तो ' पूर्वरूप" होता है; यह ' अयादेश 'का अपवाद है। अ से परे ए, ओ और “अ'के स्थानें ' पररूप '

होता है, यह युद्धि तथा दीर्षका अपवाद है; अतः इसकौ प्रवृत्तिके स्थल परिगणित होते है । अ-आ*+अ-आ, इ-ई*इ-ई, उ-ऊ+*उ-ऊ,

ऋ-ऋ + ऋ-ऋ तथा सृ-लृ + लृ-लृ के स्थानमें " दोषं एकादेश ' होता है । जैसे अ*अ«आ इत्यादि ।

३. "दण्डाप्रम्‌ "से लेकर ' लकारः ' त्क ऊपर बताये अनुसार ' दौ एकादेश ' हुआ है । यहाँ ' अक: सवर्णे दीर्ष:।" (६। १। १०१)--

इस पाणिनि-सुत्रकी प्रवृत्ति होती है । इस स्थलमें सबका पदच्छेदमात्र दिया जाता है । दण्ड + अप्रम्‌-दण्डा्म्‌। इसमें " दण्ड 'के "इ ' मे जो

*अ' है, चह और "अग्रम्‌" का 'अ' मिलकर 'आ' हुआ; इसलिये 'दण्डाग्रम' बना। इसौ प्रकार अन्यत्र भौ समझना चाहिये ।

स्ा+आगता-सा55गता। दधि+इदम्‌-दधीदम्‌, नदो*ईहते-नदीहते। मधु~उदकम्‌= मधूदकम्‌ । पिवृ^ षभः ~पिदृषभः । लु + लृकार= लृकारः ॥

४. अब गुण-एकादेश (* आद्गुणः ।'--पा०्सू० ६।१।८७) के उदाहरण दिये जति है ~ तच+श्दम्‌- तवेदम्‌ । यहाँ “तब ' के अन्तिम

"अ" और "इदम्‌ "के “इ'के स्थाने 'ए' हो गया है। इसी तरह अन्यत्र समझना चाहिये । स्कल + उदकम्‌ सकलोदकम्‌।

अर्ध+ऋचो5यम्‌ = अर्ध्चोऽयम्‌। व + दकारः = तवल्कारः ।

५ वृद्धिसंधि (“वृद्धिचि।'--प्रा० सू० ६।१।८८), के उदाहरन ~ स + एपा-सैषा। यहाँ आ+ एके स्थाने "ए" हुआ है । एवमन्यत्र ।

सा+ऐन्द्री-सैड्री । तव + ओदनम्‌-तवौदनम्‌। खट्वा+ ओषः «खट्वौघ: ।

६. अब 'यणादेश' ("इको यणवि ।'-पा० सू० ६। १।७७) के उदाहरण दिये जाते ह । इति+एवम्‌+ एत्वेयम्‌। यहाँ 'इति'के

अन्तिम "इकार, के स्थानें" य्‌' हुआ है । वि + असुधी:० व्यसुघो:। यसु ~ अलंकृतम्‌ ~ वस्वलंकृतम्‌ । यहाँ "उ "के स्थाने “ब्‌ ' हुआ है ।

पितृ + अर्थोपणनम्‌- पिषर्पो पवनम्‌ । दातृ + ई = दात्री । यहाँ 'ऋ"के स्थाने 'र्‌' हुआ है । अन्यत्र चौथे ^ यण्‌ "के उदाहरणमें " साकृतिः ' पद

आता है, उसका पदच्छेद है- ल + आकृति: * लाकृतिः ।

७. यह ' अयादेश-संधि' (* एषोऽयवायावः ।'--पा० सू० ६।१।७८) है। #+अकः = गायकः । यहाँ “नै 'के 'ऐ'के स्थानमें ' आय्‌ ' हुआ

है। लौ+अक:«लावक: (* ओ "की जगह ' आव्‌') | ने+अः “नयः (“ए'के स्थानर्मे अय्‌ '); अन्यत्र "लवः", “विष्णवे' आदि उदाहरण भी

मिलते हैं। लो+अः=ल्‌ अबू अः लषः । विष्णो*ए-विष्णवे ।

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