देवताका पूजन करे। अथवा द्विरेफ, द्विर्मुख एवं | कुमार कार्तिकेयजीने कात्यायनकों जिसका उपदेश
दक्ष आदि पृथक्-पृथक् मन्त्र हो सकते हैं। अब | किया था, वह व्याकरण बतलाऊँगा ॥ ११--२८॥
इस श्रकार आदि आण्नेव महापुराणमें 'एकाक्षदाभिधान” नामक
तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३४८ ॥
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तीन सौ उनचासवाँ अध्याय
व्याकरण-सार
स्कन्द बोले - कात्यायन ! अब मैं बोधके | ^अच्^ की 'इत्” संज्ञा होती है। अन्तिम
लिये तथा बालकोंको व्याकरणका ज्ञान करानेके | इत्संज्ञक वर्णकि साथ गृहीत होनेवाला आदि वर्ण
लिये सिद्ध शब्दरूप सारभूत व्याकरणका वर्णन | उन दोनोंके मध्यवती अक्षरोका तथा अपना भी
करता हूँ; सुनो। पहले प्रत्याहार आदि संज्ञाएँ | ग्रहणं करानेवाला होता है । इसको ' प्रत्याहार ^
बतलायी जाती हैं, जिनका व्याकरणशास्त्ीय | कहते हैं, जैसा कि निम्नाङ्कित उदाहरणसे स्पष्ट
प्रक्रियामें व्यवहार होता है। होता है-अण्, एड अद्, यय्, (अथवा यञ्),
अइठण, ऋलृक्, एओङ् एेओच्, हयवरद्, | छव्, इष्, भष्, अक्; इक्, उक्। अण्, इण्. यण्--
लण्, अमङ्णनम्, झभज्, घठथष्, जबगडदश्, | ये तीनों पर णकार अर्थात् लण् सूत्रके णकारसे बनते
खफछठथचटतव्, कपय्, शषसर्, हल्। हं । अम्, यम्, डम्, अच्, इच्, एच्, एच्, अय्,
ये " माहेश्वर सूत्र' एवं " अक्षर-समाम्नाय' | मय्, झयू, खय्, जश्, शर्, खर्, चर्, यर्, शर्,
कहलाते है । इनसे "अण्" आदि ' प्रत्याहार ' बनते | अश्, हश्, वश्, ञ्जश्, अल्, हल्, वल्, रल्,
है । उपदेशावस्थामें' अन्तिम 'हल्" तथा अनुनासिक । ल्, शल् -ये सभी प्रत्याहार है ॥ १--७॥
इस ग्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “व्याकरण-सार-वर्णन” नामक
तीन सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ३४९ ॥
न
१. " उपदेश ' कहते ह~ आदि उच्चारणको । यहाँ जो चौदह ' माहे श्वरसूत्र' हैं, वे ही " उपदेश" पदसे गृहीते होते हि ।
२. "हल् ' का अर्थ है--व्यञ्ञत्र वर्ण।
३. "अच्" स्वर अक्षरोंका नाम है ।
४. जिसकी 'इत्' संज्ञा होती है, उसका लोप हो जाता है। ' अइडण्' आदिमे जो अन्तिम णकार आदि हि, उतकी भी 'इत्संज्ञा' होती
है, अत: वे भी लुष्ठ हो समझने चाहिये। उनका ग्रहण केवल ' अण्' आदि प्रत्याहार-सिद्धिके लिये है। वे उन प्रत्याहारोंके अक्षरोंमें गिने
जहाँ जाते।
५. जिसमें अक्षरोंका प्रत्याहरण--संक्षेप किया गया हो, यह ' प्रत्याहार' कहलाता है। जैसे ' अक्' फ्रत्याहारमें 'अ, इ, उ, ऋ, ल् '-
इतने वणका संक्षेप किया गया है। अर्थात् अक् ' इस छोटेसे पदके उच्चारणसे उक्त पाँच अक्षपरेंका ग्रहण होता है । 'प्रत्याहार' बनानेकौ
विधि इस प्रकार है--' अइठण्' आदि सूत्र उपदेश हैं; उनके अन्तिम हल् 'ण्' आदि हैं, उतकी 'इत्संज्ञा' होती है, यह कात यतावी जा
चुकी है। अब अन्तिम इत्स॑ज्ञक वर्ण ण् के साथ गृहीत होनेयाला आदिवर्ण 'अ' हो तो दोनों मिलकर 'अण्' हुआ। यह ' अन्" बीचके
“इ उ'का भौ ग्रहण कराता है और अपना अर्थात् अंकारका भी योधक होता है। इसी प्रकार अन्तिम इत्संग्रक 'ऐऔच्'का जो "च्" है,
उसके साथ आदि वर्ण 'अ'को ग्रहण करनेपर ' अच्' बनता है, जो "अ इ उ ऋख् ए ओ ऐ औ'--इन नौ स्वरोका बोध कराता है। ऐसे
ही 'हल्' सूत्रका अन्तिम अक्षर 'ल्' इत्संज्ञक है। इसके साथ आदिमे 'ह य व र ट्' का 'ह' गृहीत हुआ तो " हल् प्रत्याहार बना; यह
'हल्'"ह यवरलजमडणनझभयपदधघधजवगडदखफछटघचटतकपशरंषस ह'--इन सभी व्यकझ्ञनवर्णोंका बोधक
हुआ। इमो तरह अन्य प्रत्याहारोको भी समझना चाहिये।