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* अध्याय ३४४ * ७२३

अर्थात्‌ दोनों एक-दूसरेके उपमान-उपमेय कहे | होनेपर उपमा ही “रूपक' हो जाती है। तुल्यधर्मसे

गये हों तो उसे “अन्योन्योपमा" कहते हैं। इस | युक्त दो पदार्थोका एक साथ रहनेका वर्णन

प्रकार यदि उत्तरोत्तर क्रम चलता जाय तो |“सहोक्ति" कहा जाता है ॥ १३--२३॥

उसको “गमनोपमा” कहा जाता है। इसके सिवा | पूर्ववर्णित वस्तुके समर्थनके लिये साधर्म्य

उपमाके और भी पाँच भेद होते है -' प्रशस्त” | अथवा बैधर्म्यसे जो अर्थान्तरका उपन्यास किया

“निन्दा ^ "कल्पिता "` “सदृशी ^ एवं ' किंचित्सदृशी ” । | जाता है, उसे 'अर्थान्तरन्यास"“ कहते हैं। जिसमें

गुणोंकी समानता देखकर उपमेयका जो तत्त्व | चेतन या अचेतन पदार्थकी अन्यथास्थित

उपमानसे रूपित अभेदेन प्रतिपादित होता है, उसे | परिस्थितिको दूसरी तरहसे माना जाता है, उसको

“रूपक ^ मानते हैं। अथवा भेदके तिरोहित | “उत्प्रेक्षा "" कहते हैं। लोकसीमातीत वस्तु-धर्मका

१. काव्यादर्श इकः उदाहरण इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है --' तुम्हारे मुखके समान कमल है और कमलके समाने तुम्हारा

मुख है।' इसे ही ' ठपमेयोपमा' भी कहते हैं।

२. कह्व्यादर्शकारते ' गमत्रोपमा ' का उल्लेख वहीं किया है। आग्निपुराणमें दिये गये लक्षणके अनुसार हम ' गमनोपमा "को * अन्योग्योपमा 'की

माला कह सकते हैं। उदाहरणके लिये विम्ताद्धित श्लोक द्रव्य है ~

कौमुदीव भवतौ विभाति मे काठराक्षि भवतीव कौपुदी। अम्बुजेत तुलित विलोचर्न लोचतेत च तवाप्युजं सपम्‌ ॥

३-७, इससे पहले उपमाके अठारह भेद कहे गये ह । इन्हीं भेदोंका विस्तार करके दण्डोने बत्तीस प्रकारकौ उपमाएँ प्रदर्शित की

हैं। उक्त भेदोंके अतिरिक्त जो उपमाके “प्रशंसा” आदि पाँच भेद और कहे गये हैं, उनका आधार है--भरतका 'नाट्यशास्त्र' (द्रष्टव्य

१६। ४६)। भरतपुनिने प्रशंसा आदि चो भेदोंके जो उदाहरण दिये हैं, वे भौ सोलह अध्यायके श्लोक सैंतालोससे इफ्यावततक द्रष्टव्य हैं।

<. अग्निपुराणोक्त रूपक "का लक्षण नाठ्यशास्त्रोर्ल लक्षणका संक्षिप्त रूप है। अग्तिपुराणके हौ भावकों लेकर दण्डौने "उपैव

तिरोभूतभेदा रूपकमुच्यते '--ऐसा लक्षण किया है। अर्वांचीन आलंकारिकोनि 'रूपक के बहुत-से भेदौ और उपभेदोंकी चर्चा की है।

“रूपक "का उदाहरण “नाट्यज्ञास्त' १६। ५८ में द्रष्टव्य है।

६. दण्डीवे गुण और क्रियाका सहभावसे कथन ' सहोक्ति ' माना है और ' सह दीर्घां मम श्रासैरिसा: सम्प्रति राज्य: ।' (इस समय मेरी

लम्बी साँसोकि साथ ये रते भी बहुत बड़ी हो गयी हैं) ऐसा उदाहरण दिया है।

१०. अर्थान्त्यासका जो लक्षण अग्निपुराणमें दिया गया है, लगभग इसौकी छायाकों लेकर भामहने इस प्रकार अपने प्रन्थमें उक्त

असकारका लक्षण लिखा है -

उषन्यसत्रमन्यस्य यदर्थस्योदितादृते । ज्ञेयः सोऽर्थान्तरन्यासः पूर्वार्थानुगतो यथा ॥ ( का०२।७१)

खामनने इसमें सादृश्य, असादृश्य ( साधर्म्य, वैधर्म्य) -कौ चर्चा वहीं की है, परंतु 'पू्वार्धानुगत: '-- यह विशेषण देकर उसी अर्थ॑को

व्यक्त किया है। अर्थात्‌ जिस अर्थान्तरका उपन्यास किया जाव, वह पूर्वोदित अर्थका अनुगामी होता चाहिये। यह अनुगमतर सादृश्य अथवा

वैसादुस्‍श्पसे हौ सम्भव है। वामनने अग्निपुराण तथा भामहके धार्योको अपने सूत्रम ओर भी अधिक स्पष्ट किया है ।

क्ष्या--

उक्तसिद्धपै वस्तुनो3र्धान्तरस्वैव न्वस्नमर्धान्तन्यासः ॥ (का०सू० ४। ३। २१)

काण्यादर्शंकार दण्डीने इसके लक्षणकों और भी स्वच्छरूपसे प्रस्तुत किया है। यथा --

ज्ञेय: सोऽर्धन्िन्यासो वस्तु प्रस्तुत्य किंचन । तत्साधनसमर्थस्थ न्यासो योऽन्यस्य वस्तुनः ॥ (२। १६९)

आचार्य मम्मटतक पचहुँचते-पहुँचते इसका लक्षण पूर्णतः निखार उठा है । चे लिखते हैं ~

सामान्यं या विरोधो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्तु सोऽर्थान्तरन्यसः साधर्म्येजेतेण या॥ (का०प्र० १०। १०९)

अर्थात्‌ ~ सामान्य अथवा विशेषका उससे भित्र विशेष और सामान्यसे जो समर्थन किया जाता है, वह " अर्वान्तरन्यास' है । यह

समर्थन साधर्म्यं अथवा वैधर्म्यकौ लेकर किया जाता है । इस प्रकार अर्थान्तरन्यासे चार भेद होते है । इनके उदाहरण काव्यप्रकाशमें

द्रष्टव्य है ।

११. इसी लक्षणकों कुछ और विशद करते हुए भामहतरे इस प्रकार कहा है ~

अधिवक्षितसामान्या किंचिच्वोपमया सह । अतदुणक्रियायोगादुषप्रेक्षातिशयान्विता ॥ (का २।९१)

खामतने अग्निदेव तथा भामह --दोनोकि भाषोंकों अपने सूज़में इस प्रकार संकलित किया है -

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