संयुक्त करके अर्थात् उन्हें एक बुद्धिका विषय
बनाकर बोलने या दूसरोंपर प्रकट करनेकी
इच्छासे मनको उनसे संयुक्त करता है। संयुक्त
हुआ मन कायाग्नि--जठराग्निकों आहत करता
है। फिर वह जठरानल प्राणवायुको प्रेरित करता
है। वह प्राणवायु हृदयदेशमें विचरता हुआ धीमी
ध्वनिमें उस प्रसिद्ध स्वरको उत्पन्न करता है, जो
प्रातःसवनकर्मके साधनभूत मन्त्रके लिये उपयोगी
है तथा जो “गायत्री” नामक छन्दके आश्रित है।
तदनन्तर वह प्राणवायु कण्ठदेशमें भ्रमण करता
हुआ “त्रिष्टप” छन्दसे युक्त माध्यंदिन-सवन-
कर्मसाधन मन्त्रोपयोगी मध्यम स्वरको उत्पन्न
करता है । इसके बाद उक्त प्राणवायु शिरोदेशमें
पहुँचकर उच्वध्वनिसे युक्त एवं " जगती" छन्दके
आश्रित सायं-सवन- कर्मसाधन मन््रोपयोगी स्व॒रको
प्रकट करता है। इस प्रकार ऊपरकी ओर प्रेरित
वह प्राण, मूर्धामें टकराकर अभिघातं नामक
संयोगका आश्रय बनकर, मुखवर्ती कण्ठादि
स्थानोंमें पहुँचकर वर्णोको उत्पन्न करता है । उन
वर्णोंके पाँच प्रकारसे विभाग माने गये हैं। स्वरसे,
कालसे, स्थानसे, आभ्यन्तर प्रयत्से तथा बाह्य
प्रयत्नसे उन वर्णो भेद होता है। वर्णोंके
उच्वारण-स्थान आठ हैं-हृदय, कण्ठ, मूर्धा,
जिह्वामूल, दन्त, नासिका, ओष्ठद्रय तथा तालु ।
विसर्गका अभाव, विवर्तन\, संधिका अभाव,
शकारादेश, षकारादेश, सकारादेश, रेफादेश,
जिहामूलीयत्व और उपध्मानीयत्व -ये "ऊष्मा"
वर्णोकी आठ प्रकारकी गतियाँ हैं *। जिस उत्तरवर्ती
पदमें आदि अक्षर “उकार हो, वहाँ गुण आदिके
क
द्वारा यदि 'ओ' भावका प्रसंधान (परिज्ञान) हो
रहा हो, तो उस “ओकार 'को स्वरान्त अर्थात्
स्वर-स्थानीय जानना चाहिये । जैसे" गङ्गोदकम्! ।
इस पदमें जो *ओ' भावका प्रसंधान है, वह
स्वरस्थानीय है। इससे भिन्न संधिस्थलमे जो
“ ओभाव "का परिज्ञान होता है, वह “ओ' भाव
ऊष्माका ही गतिविशेष है, यह बात स्पष्टरूपसे
जान लेनी चाहिये। जैसे-'शिवो वन्द्यः ' इसमें
जो ओकारका श्रवण होता है, वह ऊष्मस्थानीय
ही है। (यह निर्णय किसी अन्य व्याकरणकी
रीतिसे किया गया है, ऐसा जान पड़ता है।) जो
वेदाध्ययन कृतीर्थसे प्राप्त हुआ है, अर्थात् आचारहीन
गुरुसे ग्रहण किया गया है, वह दग्ध -नीरस-सा
होता है। उसमें अक्षरोको खींच-तानकर हठात्
किसी अर्थतक पहुंचाया गया दै । वह भक्षित-सा
हो गया है, अर्थात् सम्प्रदाय-सिद्ध गुरुसे अध्ययन
न करनेके कारण बह अभक्ष्य-भक्षणके समान
निस्तेज है। इस तरहका उच्चारण या पठन पाप
माना गया है। इसके विपरीत जो सम्प्रदायसिद्ध
गुरुसे अध्ययन किया जाता है, तदनुसार पठन-
पाठन शुभ होता है । जो उत्तम तीर्थ- सदाचारी
गुरुसे पढ़ा गया है, सुस्पष्ट उच्चारणसे युक्त है,
सम्प्रदायशुद्ध है, सुव्यवस्थित है, उदात्त आदि
शुद्ध स्वरसे तथा कण्ठ-ताल्वादि शुद्ध स्थानसे
प्रयुक्त हुआ है, वह वेदाध्ययन शोभित होता है।
न तो विकराल आकृतिवाला, न लंबे ओटबाला,
न अव्यक्त उच्चारण करनेवाला, न नाकसे बोलनेवाला
एवं न गद्गद कण्ठ या जिह्वाबन्धसे युक्त मनुष्य
ही वर्णोच्चारणमें समर्थ होता है। जैसे व्याघ्री
१. जहाँ सकारका 'रुत्व', * यत्व" होकर "लोप शाकल्यस्य ।' (पा०सू० ८। ३। १९) अथवा " हलि सर्वेणाम्।' ( पा०सू० ८।३।२२)
कै नियमानुसार वैकल्पिक लोप होता है ओर उस दशामे संधि नहीं होती, यहाँ उस संधिके अभावको "विचृतति" या ' विवर्तन" कहा गया
है। जैसा कि 'याज्ञवल्क्य-शिक्षा ' में वर्णन है--
इयोस्तु स्वरयोर्मध्ये संधिर्यत्र न दृश्यते । विधृत्तिस्तत्र विज्ञेया य ईशेति निरदर्शनम्॥ (श्लो० ९४)
२. इन आकि उदाहरण क्रमशः इस प्रकार हैं--शियो चन््ः, क ईशः, हरिश्शोते, आविष्कृतम्, कस्कः, आह॑तः, क £ करोति,
क > पचति।