Home
← पिछला
अगला →

इर्य

एवं हवन करे ओर हवन-पूजनके पश्चात्‌ अग्नि

आदिका विसर्जन कर दे। तत्पश्चात्‌ पूर्वोक्त होमद्वारा

संहारक्रमसे तत्त्वोंका शोधन करे ॥ ६०--६८ ॥

दीक्षाकर्ममें पहले जिन सूत्रोंमें गाँठें बाँधी

गयी थीं, उनकी वे गाँठें खोल, गुरु उन्हें शिष्यके

शरीरसे लेकर, क्रमश: उन तत्त्वोंका शोधन करे।

प्राकृतिक अग्नि एवं आधिदैविक विष्णुमें अशुद्ध-

मिश्रित शुद्ध-तत््वको लीन करके पूर्णाहुतिद्रारा

शिष्यको उस तत्त्वसे संयुक्त करे। इस प्रकार

शिष्य प्रकृतिभावको प्राप्त होता है। तत्पश्चात्‌ गुरु

उसके प्राकृतिक गुणोंको भावनाद्वारा दग्ध करके

उसे उनसे छुटकारा दिलावे। ऐसा करके वे

शिशुस्वरूप उन शिष्योंको अधिकारमें नियुक्त करें।

तदनन्तर भावमें स्थित हुआ आचार्य भक्तिभावसे

शरणमें आये हुए यतियों तथा निर्धन शिष्यको

'शक्ति' नामवाली दूसरी दीक्षा दे। वेदीपर भगवान्‌

विष्णुकी पूजा करके पुत्र (शिष्यविशेष)-को

अपने पास बिठा ले। फिर शिष्य देवताके सम्मुख

हो तिर्यगू-दिशाकी ओर मुँह करके स्वयं बैठे।

गुरु शिष्यके शरीरमें अपने ही पर्वोंसे कल्पित

सम्पूर्ण अध्वाका ध्यान करके आधिदैविक यजनके

लिये प्रेरित करनेवाले इष्टदेवका भी ध्यानयोगके

द्वारा क्रमशः सम्पूर्ण तत्त्वोंका वेदीगत श्रीहरिमें

शोधन करे। ताडनद्वारा तत्त्तोंका वियोजन करके

उन्हें आत्मामें गृहीत करे और पुनः इष्टदेवके साथ

उनका संयोजन एवं शोधन करके, स्वभावतः

ग्रहण करनेके अनन्तर ले आकर क्रमशः शुद्ध

तत्त्वके साथ संयुक्त करे। सर्वत्र ध्यानयोग एवं

उत्तान मुद्रारा शोधन करे ॥ ६९--७७ ॥

सम्पूर्ण तत्त्वोंकी शुद्धि हो जानेपर जब प्रधान

(प्रकृति) तथा परमेश्वर स्थित रह जायं, तब

पूर्वोक्त रीतिसे प्रकृतिको दग्ध करके शुद्ध हुए

शिष्योंको परमेश्वरपदमें प्रतिष्ठित करे। श्रेष्ठ गुरु

साधकको इस तरह सिद्धिमार्गसे ले चले।

अधिकारारूढ़ गृहस्थ भी इसी प्रकार आलस्य

छोड़कर समस्त कर्मोंका अनुष्ठान करे। जबतक

राग (आसक्ति) का सर्वथा नाश न हो जाय,

तबतक आत्म-शुद्धिका सम्पादन करता रहे । जब

यह अनुभव हो जाय कि "मेरे हृदयका राग

सर्वथा क्षीण हो गया है', तब पापसे शुद्ध हुआ

संयमशील पुरुष अपने पुत्र या शिष्यको अधिकार

सौपकर मायामय पाशको दग्ध करके संन्यास

ले, आत्मनिष्ठ हो, देहपातकी प्रतीक्षा करता रहे ।

अपनी सिद्धिसम्बन्धी किसी चिह्को दूसरोंपर

द्वारा चिन्तन करे। फिर पूर्ववत्‌ ताडन आदिके | व्यक्त न होने दे ॥ ७८--८१॥

इस प्रकार आदि आग्तेव महापुराणमें “सर्वदीश्षा-विधि-कथन ' नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर हुआ ॥ २७॥

अट्टाईसवाँ अध्याय

आचार्यके अभिषेकका विधान

नारदजी कहते हैं-- महर्षियो ! अब मैं आचार्ये | अन्तःकरणके मलका नाश होता है। मिट्टीके

अभिषेकका वर्णन करूँगा, जिसे पुत्र अथवा | बहुत-से घड़ोंमें उत्तम रत्न रखकर एक स्थानपर

पुत्रोपम श्रद्धालु शिष्य सम्पादित कर सकता है । | स्थापित करे । पहले एक घड़ा बीचमें रखे; फिर

इस अभिषेकसे साधक सिद्धिका भागी होता है | उसके चारों ओर घट स्थापित करे । इस तरह एक

और रोगी रोगसे मुक्त हो जाता है । राजाको राज्य | सहस्र या एक सौ आवृत्तिम उन सबकी स्थापना

और सखीको पुत्रकौ प्राप्ति होती है। इससे | करे । फिर मण्डपके भीतर कमलाकार मण्डले

← पिछला
अगला →