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* अग्निपुराण *
होनेपर जिसके उदेश्यसे प्राणका परित्याग कर
देता है, उसे ब्रह्महत्यारा' माना गया है।
ओषधोपचार आदि उपकार करनेपर किसीकी
मृत्यु हो जाय तो उसे पाप नहीं होता । पुत्र, शिष्य
अथवा पत्नीको दण्ड देनेपर उनकी मृत्यु हो जाय,
उस दशामें भी दोष नहीं होता। जिन पापोंसे मुक्त
होनेका उपाय नहीं बतलाया गया है, देश, काल,
अवस्था, शक्ति और पापका विचार करके
यत्नपूर्वक प्रायश्चित्तकी व्यवस्था देनी चाहिये। गौ
अथवा ब्राह्मणके लिये तत्काल अपने प्राणोंका
परित्याग कर दे, अथवा अग्निमें अपने शरीरकी
आहुति दे डाले तो मनुष्य ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त
हो जाता है। ब्रह्महत्यारा मृतकके सिरका कपाल
और ध्वज लेकर भिक्षान्नका भोजन करता हुआ
“मैंने ब्राह्मणका वध किया है '--इस प्रकार अपने
पापकर्मको प्रकाशित करे। वह बारह वर्षतक
नियमित भोजन करके शुद्ध होता है। अथवा
शुद्धिके लिये प्रयत्न करनेवाला ब्रह्मघाती मनुष्य
छः वर्षों ही पवित्र हो जाता है। अज्ञानवश
पापकर्म करनेबालोंकी अपेक्षा जान-बूझकर पाप
करनेवालेके लिये दुगुना प्रायश्चित्त विहित है।
ब्राह्मणके बधमें प्रवृत्त होनेपर तीन बर्षतक
प्रायश्चित्त करे। ब्रह्मघाती क्षत्रियकों दुगुना तथा
वैश्य एवं शूद्रकों छःगुना प्रायश्चित्त करना चाहिये।
अन्य पापोंका ब्राह्मणको सम्पूर्ण, क्षत्रियकों तीन
चरण, वैश्यको आधा और शुद्र. वृद्ध, स्त्री,
बालक एवं रोगीकों एक चरण प्रायश्चित्त करना
चाहिये॥ १--११॥
क्षत्रियका वध करनेपर ब्रह्महत्याका एकपाद,
वैश्यका वध करनेपर अष्टमांश ओर सदाचारपरायण
शुद्रका वध करनेषर षोडशांश प्रायश्चित्त माना
गया है । सदाचारिणी स्त्रीक हत्या करके शुद्रहत्याका
प्रायश्चित्त करे। गोहत्यारा संयतचित्त होकर एक
मासतक गोशालामे शयन करे, गौ ओका अनुगमन
करे और पञ्चगव्य पीकर रहे। फिर गोदान
करनेसे वह शुद्ध हो जाता है । "कृच्छर ' अथवा
"अतिकृच्छ्र" कोई भी व्रत हो, क्षत्रियोंको उसके
तीन चरणोंका अनुष्ठान करना चाहिये। अत्यन्त
बूढ़ी, अत्यन्त कृश, बहुत छोटी उम्रवाली अथवा
रोगिणी स्त्रीकौ हत्या करके द्विज पूर्वोक्त विधिके
अनुसार ब्रद्यहत्याका आधा प्रायश्चित्त करे । फिर
ब्राह्र्णोको भोजन कराये और यथाशक्ति तिल
एवं सुवर्णका दान करे। मुक्ते या थप्पड़के
प्रहारसे, सींग तोडुनेसे ओर लाठी आदिसे मारनेपर
यदि गौ मर जाय तो उसे ' गोवध ' कहा जाता है ।
मारने, बाँधने, गाड़ी आदिमें जोतने, रोकने अथवा
रस्सीका फंदा लगनेसे गौकी मृत्यु हो जाय तो
तीन चरण प्रायश्चित्त करे। काठसे गोवध करनेवाला
" सांतपननत्रत ', ढेलेसे मारनेवाला "प्राजापत्य ', पत्थरसे
हत्या करनेवाला ^ तप्तकृच्छ्र" और शस्त्रसे वध
करनेवाला ' अतिकृच्छ्र ' करे । बिल्ली, गोह, नेवला,
मेढक, कुत्ता अथवा पक्षीकी हत्या करके तीन
दिन दृध पीकर रहे; अथवा "प्राजापत्य' या
“चान्द्रायण' व्रत करे १२--१९\॥
गुप्त पाप होनेपर गुप्त और प्रकट पाप होनेपर
प्रकट प्रायश्चित्त करे। समस्त पापोंके विनाशके
लिये सौ प्राणायाम करे। कटहल, द्राक्षा, महुआ,
खजूर, ताड़, ईख और मुनक्केका रस तथा
टंकमाध्वीक, मैरेय और नारियलका रस--ये
मादक होते हुए भी मद्य नहीं हैं। पैटो हो मुख्य
सुरा मानी गयी है। ये सब मदिराएँ द्विजोंके लिये
निषिद्ध हैं। सुरापान करनेवाला खौलता हुआ जल
पीकर शुद्ध होता हैं। अथवा सुरापानके पापसे
मुक्त होनेके लिये एक वर्षतक जटा एवं ध्वजा
धारण किये हुए वने निवास करे। नित्य रात्रिके
समय एक बार चावलके कण या तिलकी
खलीका भोजन करे। अज्ञानवश मल-मूत्र अथवा
मदिरासे छूये हुए पदार्थका भक्षण करके ब्राह्मण,