अन्य दिशाओंमें हों) तो उस स घरकी * विशाल
संज्ञा है । वह कुलक्षयकारी तथा अत्यन्त भयदायक | यह ध्वज आदि आय स्थित होता है। उसीसे
होता है । जिसमें पश्चिम दिशामें ही शाला न बनी
हो, उस विशाल गृहको “पक्षघ्त' कहते हैं। वह
पुत्र-हानिकारक तथा बहुत-से शत्रुओंका उत्पादक
होता है। अब मैं पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे
*ध्वज'* आदि आठ गृहोंका वर्णन करता हूँ।
(ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृषभ, खर (गधा),
हाथी और काक--ये ही आठोंके नाम हैं।) पूर्ब-
दिशामें स्नान और अनुग्रह (लोगोंसे कृपापूर्वक
मिलने)-के लिये घर बनावे। अग्निकोणमें उसका
रसोईघर होना चाहिये। दक्षिण दिशामें रस-क्रिया
तथा शय्या (शयन)-के लिये घर बनाना चाहिये।
नैऋत्यकोणमें शस्त्रागार रहे । पश्चिम दिशामें धन-
रत्न आदिके लिये कोषागार रखे। वायव्यकोणमें
सम्यक् अन्नागार स्थापित करे। उत्तर दिशामें धन
और पशुओंको रखे तथा ईशानकोणमें दीक्षाके
लिये उत्तम भवन बनवावे। गृहस्वामीके हाथसे
नापे हुए गृहका जो पिण्ड है, उसकी लंबाई-
चौड़ाईके हस्तमानको तिगुना करके उसमें आठ-
से भाग दे। उस भागका जो शेष हो, तदनुसार
ध्वजादि-काकान्त आयका ज्ञान होता है। दो,
तीन, चार, छः, सात और आठ शेष बचे तो
उसके अनुसार शुभाशुभ फल हो। यदि मध्य
(पाँचवें) और अन्तिम (काक)-में गृहकी स्थिति
हुई तो वह गृह सर्वनाशकारी होता है। इसलिये
आठ भागोंको छोड़कर नवप भागमें बना हुआ
गृह शुभकारक होता है। उस नवम भागमें ही
मण्डप ठत्तम माना गया है। उसकी लंबाई-
चौड़ाई बराबर रहे अथवा चौड़ाईसे लंबाई दुगुनी
रहे॥ २७--३३॥
पूर्वले पश्चिमकी ओर तथा उत्तरसे दक्षिणकी
ओर बाजारमें ही गृहपद्लि देखी जाती है। एक-
एक भवनके लिये प्रत्येक दिशामें आठ-आठ द्वार
हो सकते हैं। इन आटठों द्वारोंके क्रमशः फल भी
पृथक्-पृथक् कहे जाते हैं। भय, नारीकी चपलता,
जय, वृद्धि, प्रताप, धर्म, कलह तथा निर्धनता-ये
पूर्ववर्ती आठ दवारोके अवश्यम्भावी फल हैं। दाह,
दुःख, सुहन्नाश, धननाश, मृत्यु, धन, शिल्पज्ञान
उसका नाम ' स्वस्तिक" होता है और उत्तर द्वारसे रहित होनेपर ' रुचक '। जब किसी एक दिशामें शाला (कमरा) हौ व हो तो वह
तिशाल-गृह' है। इसके भी कई भेद हैं। जिस मकानके भीतर उत्तर दिशामें कोई शाला न हों, यह भिश्छल -गृह ' घान्यक' कहलाता है।
वह मनुष्योंके लिये क्षेमकारक, युद्धिकारक तथा बहुपुत्र-फलदायक होता है। यदि पूर्व-दिज्ञामें शाला च हो तो उस्न त्रिशाल-गृहकों
*सुक्षेत्र' कहते हैं। यह घन, यश और आयुको देगेवाला तथा शोक और मोहका नाश करनेवाला होता है । यदि दक्षिण-दिल्ञामें शाला न
हो तो उसको 'विशाल' कहा गया है। यह मनुष्योंके लिये कुलक्षयकारों होता है तथा उसमे सब प्रकारके रोगोंका भव यना रहता है। यदि
पश्चिम-दिशामें कोई शाला न हो तो उस व्िशाल-गृहको 'पक्षस्न' करौ हैं । यह मित्र, भाई-बन्धु तथा पुत्रॉका माएक होता है और उसमें
सब प्रकारके भय प्राप्त होते रहते हैं।
अब द्विशाल-थरका फल बताते हैं--दक्षिण-पश्चिम दिशाओं हो दो शालाएँ हों ( और अन्य दो दिशाओं न हों) तो वह ट्विजञाल-
गृह, धन-धान्यफ़लदायक, मानवोकि क्षेमकी वुद्धि करनेवालः तथा पुप्ररूप फल देनेवाला है। वदि केवल पश्चिम और उत्तर दिशाऑमें हौ
दो शालाएँ हों तो उस गृषटको 'यमसूर्य' कहते हैं। यह गजा और अग्निका भय देनेवाला है तथा मनुष्योंके कुलका संहार करनेवाला होता
है। यदि उत्तर और पूर्वमे हौ दौ शाला हों तो उस गृहका नाम " दण्ड ' है। जहाँ "दण्ड" हो, वहाँ अकाल-पृत्युका भय प्राप्त होता है तथा
शत्रुओंकी ओरसे भौ भयको प्राप्ति होती है। पूर्ष और दक्षिण दिशाओंमें ही शाला होनेसे जो ट्विशाल-गृह निर्मित हुआ है, उसको ' धन'
या 'आत' संज्ञा है। वह शस्जभय तथा पराभव देनेवाला होता है। पूर्व-पश्चिममें दो शालाएँ हों तो उसको " चु्ठी " संज्ञा है। वह मृत्युकी
सूचक है। वह गृह स्त्रियोंके लिये वैधव्यकारक तथा अनेक भयदायक है । उत्तर-दक्षिणमें हौ दो शालाएँ हों तो वह भी मनुप्यके लिये
भयदायक है। (द्रष्टव्ये अध्याय २५४ के सलोक सं० १ से १३ तक।)
* अपराजितपृच्छा (विश्वकर्म-सास्त्र ६४ यें सूत्र )- के अनुसार पूर्वादि दिशाओं प्रदक्षिफक्रमसे रहनेवाले ध्वज आदिका उल्लेख इस
प्रकार पिलत है--
ध्वजो धूमश्च सिंहश्च धानो वृषखरी गजः । ध्वाइक्षक्रेति सनुषा; प्राच्यादिषु प्रद्छिणाः ॥