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+ अध्याय ८७ *

१८९

सतासीवाँ अध्याय

निर्वाण-दीक्षाके अन्तर्गत शान्तिकलाका शोधन

भगवान्‌ शंकर कहते है -- स्कन्द ! पूर्वोक्त

मार्गसे विद्याकलाका शान्तिकलाके साथ विधिपूर्वकं

संधान करे। उसके लिये मन्त्र है--' ३» हां हूं

हां।' शान्तिकलामें दो तत्त्व लीन हैं। वे दोनों

हैं--ईश्वर और सदाशिव। हकार और क्षकार--

ये दो वर्णं कहे गये हैं। अब भुवनोके साथ

उन्हींके समान नामवाले रुद्रोंका परिचय दिया जा

रहा है। उनकी नामावली इस प्रकार है--प्रभव,

समय, क्षुद्र, विमल, शिव, घन, निरञ्जन, अद्भार,

सुशिरा, दीप्तकारण, त्रिदशेश्वर, कालदेव, सूक्ष्म

और अम्नुजेधवर (या भुजेधर)-ये चौदह रुद्र

शान्तिकलामें प्रतिष्ठित हैं। व्योमव्यापिने,

व्योमरूपाय, सर्वव्यापिने, शिवाय, अनन्ताय,

अनाथाय, अनाश्रिताय, ध्रुवाय, शाश्चताय,

योगपीठसंस्थिताय, नित्ययोगिने, ध्यानाहराय --

ये बारह पद हैँ ॥ १--५॥

पुरुष ओर कवच-ये दो मन्त्र हैं; बिन्दु

ओर जकार-ये दो बीज है; अलम्बुषा और

यशा-ये दो नादियाँ है; कृकर और कूर्म--ये

दो प्राणवायु हैं; त्वचा और हाथ--ये दो इन्द्रियाँ

हैं; शन्तिकिलाका विषय स्पर्श माना गया है;

स्पर्श और शब्द-ये दो गुण हैं और एक ही

कारण हैँ - ईश्वर इसकी तुर्यावस्था है । इस प्रकार

भुवनं आदि समस्त तत्त्वॉकी शान्तिकलामें स्थितिका

चिन्तन करके पूर्ववत्‌ ताडन, छेदन, हदय-प्रवेश,

चैतन्यका वियोजने, आकर्षण और ग्रहण करे ।

फिर शान्तिके मुखसूत्रसे चैतन्यका आत्मा आरोपण

करके कलाका ग्रहण कर उसे कुण्डमें स्थापित

कर दे। तदनन्तर ईशसे इस प्रकार प्रार्थना करे-

"हे ईश! मैं इस मुमुश्चुको तुम्हरे अधिकारे

दीक्षित कर रहा हूँ। तुम्हें इसके अनुकूल रहना

चाहिये ' ॥ ६--१० ॥

फिर माता-पिताका आवाहन आदि और

शिष्यका ताड़न आदि करके चैतन्यको लेकर

विधिवत्‌ आत्मामें योजित करे। तत्पश्चात्‌ पूर्ववत्‌

माता-पिताके संयोगकी भावना करके उद्धवा

नाड़ीद्वारा उस चैतन्यका हृदय-मन्त्रसे सम्पुटित

आत्मबीजके उच्चारणपूर्वक देवीके गर्भमें नियोजन

करे। देहोत्पत्तिके लिये हृदय-मन्त्रसे, जन्मके हेतु

शिरोमन्त्रसे, अधिकार-सिद्धिके लिये शिखा-

मन्तरसे, भोगके निमित्त कवच-मन्त्रसे, लयके

लिये शस्त्र-मनत्रसे, स्नोत:शुद्धिके लिये शिव-

मन्त्रसे तथा तत्वशोधनके लिये हृदय-मन्त्रसे

पाँच-पाँच आहुतियाँ दे। इसी तरह पूर्ववत्‌

गर्भाधान आदि संस्कार भी करे। कवच-मन्त्रसे

पाशकी शिथिलता एवं -निष्कृतिके लिये सौ

आहुतियाँ दे। मलशक्ति-तिरोधानके उद्देश्यसे शस्त्र-

मन्त्रह्दार पाँच हवन करे।

इसी तरह पाश-वियोगके निमित्त भी पाँच आहुतियाँ

देनी चाहिये। तदनन्तर अस्त्र-मन््रका सात बार

जप करके बीजयुक्तं अस्त्र-मन््ररूपी' कटारसे

'पाशका छेदन करे । उसके लिये मन्त्र इस प्रकार

है--' ॐ हाँ शान्तिकलापाशाय नमः हः हूं

फट्‌।' ॥ ११- १७॥

इसके बाद पाशका विमर्दन तथा वर्तुलीकरण

पूर्ववत्‌ अस्त्र-मन्त्रसे करके उसे घृतसे भरे हुए

खुबेमें रख दे और कला-सम्बन्धी अस्त्र-मन्त्रद्वारा

उसका हवन करे। फिर पाशाङ्कुरकी निवृत्तिके

लिये अस्त्र-मन्त्रसे पाँच आहुतियाँ दे और प्रायश्चित्त-

निवारणके लिये आठ आहुतियोंका हवन करे।

मन्त्र इस प्रकार है--' ॐ हः अस्त्राय हूं फट्‌}

फिर हृदय-मन्त्रसे ईश्ववका आवाहन करके

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