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* कार्तिक-व्रतका पाहार््य--गुणवत्तीकों कार्तिक-ख़तके पुण्यसे भगवानकी प्राप्ति +

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मैन पूर्वजन्ममे कौन-सा दान, तप अथवा त्रत किया था

'जिससे मैं मर्त्यल्त्रेकमें जन्म लेकर भी मर्त्यभावसे ऊपर

उठ गयी, आपकी अर्द्धाड्िनी हुई।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा--प्रिये ! एकाग्रचित्त

होकर सुनो--तुप पूर्वजन्पमें जो कुछ थीं और जिस

पुण्यकास्क ब्रतका तुमने अनुष्ठान किया था, वह सत्र मैं

बताता हूँ। सत्ययुगके अन्तम मायापुरी (हरद्वार) के

भीतर अन्रिकुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण रहते थे, जो

देवक्षर्मा नामसे प्रसिद्ध थे। वे वेद्‌-येदाङ्गौके पारैगत

विद्वान्‌, अतिथिसेवी, अग्निहोत्रपरणयण और सूर्यत्रतके

पालनमें तत्पर रहनेचाकते थे। प्रतिदिन सूर्यकी आराधना

करनेके कारण वे साक्षात्‌ दूसरे सूर्यकी भाँति तेजस्वी

जान पड़ते थे। उनकी अवस्था अधिक हो चली थी।

ब्राह्मणके कोई पुत्र नहीं था; केवल एक पुत्री थी,

जिसका नाम गुणवती था। उन्होंने अपने चन्द्र॒ नापक

दिष्यके साथ उसका विवाह कर दिया । वे उस शिष्यको

ही पुत्रकी भाँति मानते थे और यह जितेन्द्रिय दिष्य भी

उन्हें पिताके ही तुल्य समझता था। एक दिन वै दोनों

गुरु-दिष्य कुदा और समिधा लानेके लिये गये और

हिपालयके दाखाभूत पर्वतके बनमें इधर-उधर भ्रमण

करने गे; इतनेमें ही उन्होंने एक भयङ्कर राक्षसको

अपनी ओर आते देखा । उनके सारे अद्ध भयसे काँपने

लगे। वे भागनेमें भी असमर्थ हो गये। तबतक उस

कालरूपी राक्षसने उन दोनौको मार डाला। उस क्षेत्रके

प्रभावसे तथा स्वयै धर्मात्मा होनेके कारण उन दोनोंकों

मेरे पार्षदोने वैकुण्ठ धाममें पहुँचा दिया। उन्होंने जो

जीवनभर सूर्यपूजन आदि किया था, उस कर्मसे मैं उनके

ऊपर बहुत संतुष्ट था। सूर्य, शिव, गणेद्ा, विष्णु तथा

शक्तिके उपासक भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। जैसे वर्षाका

जल सब ओरसे समुद्रमें ही जाता है, उसी प्रकार इन

पाँचोंके उपासक मेरे ही पास आते हैं। मैं एक ही हूँ.

तथापि लीराके अनुसार भिन्न-भिन्न नाम धारण करके

पाँच रूपोमें प्रकर हुआ हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे कोई

देवदत्त नामक एक ही व्यक्ति पुत्र-पिता आदि भिन्न-भिन्न

नामोंसे पुकारा जाता है ।* वि

तदनन्तर गुणवतौने जब राक्षसके हाथसे उन

दोनोकि मारे जानेका हाल सुना, तब वह पिता और

पतिके वियोग-दुःखसे पीड़ित होकर करुणस्वरमें चिस्परप

करने छगी--'हा नाथ ! हा ताते ! आप दोनों मुझे

अकेली छोड़कर कहाँ चले गये ? मैं अनाथ बालिका

आपके निना अन क्या करूँगी। अब कौन घरमे बैठो

हुई मुझ कुशलहीन दु-खिनी स्ीका भोजन और वख

आदिके द्वारा पालन करेगा। इस प्रकार बारकार

करुणाजनक विलाप करके वह बहुत देरके बाद चुप

हुई। गुणवती शुभकर्म करनेवास्परै थी । उसने घरका

सारा सामान बेंचकर अपनी शक्तिके अनुसार पिता और

पक्तिका पारत्तरैकिक कर्म किया। तत्पश्चात्‌ वह उसी

नगरम निवास करने गी । झान्तभावसे सत्य-ज्ञौच

आदिके पालने तत्पर हो भगवान्‌ विष्णुके भजनमें

समय बिताने लगौ । उसने अपने जीवनभर दो चतोका

विधिपूर्वक पालन किया-- एक तो एकादशीका उपवास

और दूसरा कार्तिक मासका धत्तरभाति सेवन । प्रिये ! ये

दो त्रत मुझे बहुत ही प्रिय है । वे पुण्य उत्पन्न करनेवाले,

पुत्र और सम्पत्तिके दाता तथा भोग और मोक्ष प्रदान

करनेवाले हैं। जो कार्तिकके महीनेमें सूर्यके तुत

राशिपर रहते समय प्रातःकाल स्नान करते हैं, वे

महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मनुष्य

कार्तिके स्नान, जागरण, दीपदान और तुलसीबनका

पालन करते है, वे साक्षात्‌ भगवान्‌ विष्णुके स्वरूप हैं ।

जो लेग श्रीविष्णुमन्दिरमें झाड़ देते, स्वस्तिक आदि

निवेदन करते और श्रीविष्णुकी पूजा करते रहते हैं, वे

जीवन्मुक्त हैं। जो कार्तिकर्मे तोन दिन भी इस नियमका

पालन करते हैं, वे देवताओंके स्यि वन्दनीय हो जाते

हैं। फिर जिन लछोगोंने आजन्म इस काॉर्तिकब्रतका

+ सौरश्च दौवा गाणेद्ञा वैष्णवाः शक्तिपृजका: । मामेव ॒प्राप्रवन्तोह वर्षाप: सागरे यथा ॥

एकेऽ पञ्चध्य जातः क्रीडया नामभिः किल्ठ | देवदतो

यथा कर्चितपुत्राद्याङ्काननामभिः । (९५० । ६३-६४)

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