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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिर्द पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पू्णमिवावदिष्यते ॥
ॐ व 4 \\॥॥ | ॥/ ५ {ककः । म 9५४
एहि सूर्य सहस्रांझो तेजोराशे जगत्पते ।
अनुकम्पय मा भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर ॥
संख्या २
खर्ष ६६/ गोरखपुर, सौर फाल्गुन, श्रीकृष्ण -संवत् ५२९७, फरवरी १९९२ ॥
पूर्ण संख्या ७८३
कृष्णाय तुभ्यं नमः
चेदानुद्धरते जगन्निवहते भुगोलसुद्विञ्रते
दैत्यान् दारयते बलि छलयते क्षत्रक्षयं कुर्वते ।
पौलस्त्य जयते हत्यै कल्यते कारुण्यमातन्वते
म्लेच्छान् मूर्च्छयते दझाकृतिकृते कृष्णाय तुभ्यं नमः ॥
श्रीकृष्ण ! आपने मत्स्यरूप घारणकर प्रल्यसमुदरमे डूबे हुए वेदोंका उद्धार किया, समुद्र-मन्थनके समय महाकूर्म
बनकर पृथ्वीमण्डलको पीठपर धारण किया, महावगाहके रूपमें कारणार्णवमे डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार किया, नृसिंहके रूपमें
हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंका विदारण किया, वामनके रूपमे राजा बलिको छल्त्र, परशुरामके रूपमें क्षत्रिय जातिका संहार
किया, श्रीरामके रूपमें महाबल्ली रावणपर विजय प्राप्त की, श्रीवलरामके रूपमें हलको शखरूपमें धारण किया, भगवान् बुद्ध-
के रूपमे करुणाकर विस्तार किया था तथा कल्किके रूपमे म्ठेच्छको मूर्च्छित करेंगे । इस प्रकार दशावतारके रूपमें प्रकट
आपकी मैं वन्दना करता हूँ।
जु ००५१५ (०-
फरवरी ९४-