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एकर्त्रिजो5ध्यायः ` ३१.३

१६७५. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति

नान्यः पन्था विद्यतेयनाय ॥१८ ॥

सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अंधकाररहित, बह विर्‌ पुरुष है, जिसको जानने के पश्चात्‌ साधक (उपासक)

को मोक्ष की प्राप्ति होती है । मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं ॥१८ ॥

१६७६. प्रजापतिश्चरति गर्भे अन्तरजायमानो बहुधा वि जायते । तस्य योनिं परि पश्यन्ति

धीरास्तस्मिन्‌ ह तस्थुर्भुवनानि विश्वा ॥९९॥

प्रजापालक परमात्मा की सत्ता सम्पूर्ण पदार्थों मे विद्यमान है, वह अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में प्रकट

होता है । उसकी कारण शक्ति में सम्पूर्ण भुवन समाहित हैं । शानी-जन उसके मुख्य स्वरूप को देख पाते है ॥१९ ॥

१६७७. यो देवेभ्यऽ आतपति यो देवानां पुरोहितः । पूर्वो यो देवेभ्यो जातो नमो रुचाय

ब्राह्मये ॥२० ॥

देव समुदाय में अग्रणी एवं उन्हें (देवों को) प्रकाशित करने वाले, जिनका प्राकर सब देवों से पहले ही

हुआ है, उन तेज सम्पन्न ब्रह्म को नमन है ॥२० ॥

१०५८. रुचं बराह्मं जनयन्तो देवाऽ अग्रे तदब्रुवन्‌। यस्त्वैवं ब्राह्मणो विद्यात्तस्य देवा 3असन्‌

॥२१॥

बहाज्ञानी देवों का प्रारंभिक कथन है कि जो प्रकाशमय ब्रह्म को प्रकट करने वाले ज्ञानी उसको (विराट्‌ सत्ता

को) जानते हैं, उनके अधिकार में समस्त देवशक्तियाँ रहती हैं ॥२१ ॥

१६७९. श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्यावहोरात्रे पाश्चें नक्षत्राणि रूपमश्चिनौ व्यात्तम्‌ ।

इष्णन्निषाणामुं म ऽ इषाण सर्वलोकं म 5 इषाण ॥२२ ॥

हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्‌ ! सबको सप्यन्नता प्रदान करने वाली वैभवरूपी लक्ष्मी आपकी पत्नी स्वरूप हैं,

भुजाएँ रात्रि और दिन एवं नक्षत्र आपके रूप हैं | चुलोक एवं पृथ्वी आपके मुख सदृश हैं इच्छाशक्ति से सबकी

इच्छाओं को पूर्ण करने में समर्थं हे ईश्वर !हमारी उत्तम लोकों की प्राप्ति की इच्छा पूर्ति के लिए आप कृषा करें ॥

-ऋषि, देवता, छन्द-विवरण-

ऋषि-- नारायण पुरुष १-१६ । उत्तरनारयण १७-२२ ।

देवता--पुरुष जगद्बीज १-१६ । आदित्य १७-२२ ।

छन्द--निचृत्‌ अनुष्टुप्‌ १-३, <-११, १४ । अनुष्टुप्‌ ४, ५, ७, १२, १३, १५. २०, २१॥ विराट अनुष्टुप्‌ ६ ॥

विराट्‌ व्रिष्टप्‌ १६ । भुरिक्‌ त्रिष्रुप्‌ १७, १९ । निचृत्‌ त्रिष्टप्‌ १८ । निचृत्‌ आर्षी त्रिष्रप्‌ २२ ।

॥ इति एकत्रिंशोऽध्यायः ॥

तिलक ७+२०-३७+-

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