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६८० # कलित किचपुराण *

०. कि ४.५ कैक

कुछ देखना चाहिये; जो अध्वाकी व्याप्निको शिवे ही साथ उनकी गृहिणी बनकर रहती

न जानकर शोधन करना चाहता है, वह है। जो प्रकृति-जन्य जगत्‌-रूप कार्य है, बही

झु्िसे चित रह जाता है, उसके फरलको उन क्षिय दम्पतिक्की संतान है। झिय कर्ता हैं

नहीं पा सकता । उसका सारा परिश्रम व्यर्थ, और झक्ति कारण । यही उन दोनोंका भेद

केवल नरककी ही प्राप्ति करानेबाला होता है। चास्तवपे एकपाश्र साक्षात्‌ किय ही दो

है। शक्तिपातका संयोग हुए बिना तत्त्योंका रूपॉर्में स्थित हैं। कुछ लोगोंका कहता है कि

उीक-ठौक ज्ञान नहीं हो सकता। उनकी खी ओर पुरुषरूपमे ही उनका भेद है + अन्य

व्याप्ति और बुद्धिका ज्ञान भी असम्भव है। लोग काते हैं कि पराशक्ति शियमें नित्य

दिवकी जो चित्स्वरूपा परपेश्वरी परा दाक्ति समवेत है। जैसे प्रभा सूर्यसे भिन्न नहीं है,

है, कही आज्ञा है। उस कारणरूपा आज्ञाके उसी प्रकार चित्स्वरूपिणी पराशक्ति शिवसे

सहयोगसे ही रिव सप्पूर्णा झियके अभिन्न ही है। यही सिद्धान्त है । अतः शिव

अधिष्ठाता होते हैं। विचारदृष्टिसे देखा जाय परम कारण हैं, उनकी आज्ञा ही परपेश्वरी

तो आत्पामें कभी विकार नहीं होता । यह है। उसीसे प्रेरित होकर शिवकी अबिनाक्षी

विकारकी अतीति मायामात्र है। न तो यन्धन पूल प्रकृति कार्यभेदसे महामाया, माया

है और न उस चन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली और त्रिगुणात्मिक प्रकृति--इन तीन रूपे

कोई मुक्ति है। शिवकी जो अव्यभिचारिणी स्थित हो छः अभ्वाओंकों प्रकट करती है।

परा शाक्ति है, कही सम्पूर्ण ऐश्वर्यकी वह छः प्रकारका अध्वा वागर्थमय है, बही

पराकाप्ना है । यह उन्हींके समान शर्मवाली है सम्पूर्ण जगतके रूपमे स्थित दै; सभी

और विदो्तः उनके उन-उन विलक्षण झास्त्सपूह इसी भावका विस्तारसे

भावोंसे युक्त है । उसी शक्तिके साथ पिव अतिपादन करते है ।

गृहस्थ घने हुए हैं और वह भी सदा ठन (अध्याय २९)

ज्र्द

ऋषियोंके प्रइनका उत्तर देते हुए वायुदेवके द्वारा शिवके स्वतन्ल

॥ एवं सर्वानुआहक स्वरूपका भ्रतिपादन

तदनन्तर ऋषियेनि कई कारण दिखाकर एक समान फल नहीं पिल सकता तो यह

पूछा--वायुदेश ! यदि. दिव सदा ठीक नहीं है; क्योंकि कमोंकी विचित्रता भी

शान्तभावसे रहकर ही सबपर अनुग्रह करते यहाँ नियामक नहीं हो सकती । कारण कि

हैं तो सबकी अगिलाघाओंको एक साथ ही वे कर्म भी ईश्वरके करानेसे ही होते हैं। इस

पूर्ण क्यो नहीं कर देते ? जो सब्र कुछ थिषयमें बहुत कहनेसे क्या लाभ । उपर्युक्त-

करनेपें समर्थ होगा, थह सबको एक साथ रूपसे विभिन्न युक्तियोंद्वारा फैल्मयी गयी

ही बन्धन-मुक्त क्यो नहीं कर सकेगा ? यदि नास्तिकता जिस अकारसे शीघ्र ही निवृत्त हो

कहें अनादिकालसे चले आनेवाले सब्रके जाय, चैसा उपदेशा दीजिये ।

विचित्र कर्म अलग-अलग है, अतः सबको वायुदेवताने _कहा--ब्राह्मणो ! आप-

॥ कऔ॑ घ 3000७

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