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# दारणं बज सर्वेश सृत्युंअयमुमापतिम्‌ #

[ संहित स्कन्दपुराणे

हुई है। भ्यास ! क्षिप्राका नाम ज्वरी क्यों हुआ, यह बताता

हूँ; सुनो | अनिशद्धसे अपमानित होकर दैत्यराज बराणाम़ुरने

जय भगवान्‌ भीकृष्णके साथ अपनी सहस्तों भुआओंमे नाना

प्रकारके अख्य-शख्य छेकर युद्ध किया, तेम बसुदेवनन्दन

ओऔकृष्णने क्षुरप नामक शीप्रगामी ब्राणके द्वारा शीघ्रतापूर्वक

उसकी सदस भुजाओंकों काट शटा ( केवल दो भुजाएँ

केष छोड़ दीं ) | भुज्यएँ कट जानेसे ब्राणास॒स्का उत्साह भङ्ग

हो गया । बह उस युद्धसे पीड़ित हो भगवान्‌ शहरकी शरणमे *

गया । अपने समीप आये हुए भयविह्वल ग्रणासुरकों देखकर

मगवान्‌ शियकों बड़ी दया आयी । वे, युद्धमें नदो भगवान्‌

आकृष्य अविचलभवसे शदे थे; बहो गये और बाणोंकी

षां करते हुए. उन्होंने भीकृष्णको आगे बदनेसे रोका।

फिर तो दोनोमें बढ़ा भयङ्कर संग्राम छिड़ गया। मगवान्‌

शिवने माहेश्वर च्यरको प्रकट किया। यद देख ओऔडऊृष्णने

भी दैष्णव ज्वर्की खष्टि ढी। फिर वे दोनों स्वर एक-

दूसरे भयर युद्ध करने छगे । अन्तरम माहेश्वर ज्वर्‌ भाग

खड़ा हुआ । वह सब स्तोको धूमता किरा, पर कहीं भी

उसे शान्ति नहीं मिलती । अन्तम वह मदाकाल बनमें आया

ओर वैष्णव स्वरसे पीड़ित दो शिप्ता नदीके जएमें कूद पढ़ा ।

इससे उसको बड़ी शान्ति मिली। माहेश्वर उवरको दान्त हुआ

देख ये'्शय ज्वरे भी यहाँ पहुँचछर शिप्राके जलम शान

किया । उस जल्के प्रभायसे विष्णु और शिव दोनोंके ही

ज्यर शान्त एवं बिनष्ट हे गये | इसलिये दिप्रा मदी सब

खमे फ्वरका तरक्षण नादा करनेवाली मानी गयी दै ।

जबरसे पीढ़ित एवं परम दुःशिते हुए. जो मानव एकाग्रचित्त

शे शिप्रामें गोता चगाति अर उसके तटपर निवास करते हैं,

उन्हें स्वरजनित पीड़ा कभी कष्ट नहीं देती है ।

महामते ज्यास | एक समयक्ी बात है । भगयान्‌ शिव

हाथमे कपाल केकर नागलोककी भोगयती पुरीमें मिक्षाके लिये

गये और घर-घर धूमकर उन्होंने पमिक्षां देहि? ( भिक्षा दो )

की रट लगायी । कितु उन भसे मगवान्‌ झिवकों किसीने भी

मिक्षा नदीं दी । १ ये पुरीसे कादर निके और उख श्यानपर

गये, ज नागलोके संरक्षणमें अमृतके इफीस कुण्ड भरे

हुए थे । वहाँ पटु चकर सर्वान्तर्यामी भगवान्‌: छुरन अपने

तृतीय नेत्रके मांस अमृतके कमसत कुण्डोंकों पी लिया और

फिर बोरे उठकर च दिये । यद १ देख-मुनरूर समस्त

नागस्मेक काप उठा और शर एक-वूरेते पृछन हमे, यद

किसका कर्म दे! किसने क्या कर दिया रै, जिसल इन

कुण्डोका अस्त बहाँसे चला गया १?

परस्पर ऐसा कहकर वासुकि आदि सभी नाग किसी

महात्माका अपराध हो जानेकी आशक्लासे नगर छोड़कर

आऋटर निकले और क्या करें, कहाँ जायें! अब इमास जीवन-

निर्याह केसे होगा !! इत्यादि रूपसे चिन्ता प्रकट करते हुए.

ख्त्री-पाल्कोंफे साथ ये मन-दी-मन भगवान्‌ औीहरिडी शरणमें

गये । क्च उनपर अनुग्रह करनेके दिये आकाशनाणी हुई--

ध्नागगण ! ६मछोगोंने धरपर आये हुए देवताका अपमान

किया, अतिथिरूत्कारका समय जानकर हाथ कपाल लिये

भिक्षुके वेषमें मिक्षा छेनेके किये साक्षात्‌ भगवान्‌ शङ्कर

व्हा द्वारपर आये ये । परेतु भोगषती पुरीमें किसीने मी उनको

मिक्षा नहीं दी, तव वे बाहर चले गये हैं । इसी व्यत्तिमके

कारण तुम्हारे कुण्डोंका सम्पूर्ण अमृत नए हो गया है। अब

वरमल्मरेग पातालसे निकलकर उत्तम महाकाल वनर्मे जाओ ।

वहां तीनों छोछोंको पवित्र करनेवाली भेष्ठ॒ नदी पिमा चती

है, जो समस्त कामनाओ और फरोफो देनेवाली है। यहाँ

जाकर तुम स्य छोग विभिपूर्यक ञान और देबाधिदेय भगवान्‌

दिवका भजन करो । ऐसा इरनेपर नागलोके दुम्दारी नह

हुई अमृतराशि पुनः प्राप्त हो जायगी ।›

इस ऋकाशबाणीरो सुनकर सब नाग ख्ती-बाल्क ओर

कृद्धोकि खथ महाकाल वनमें गये। उन्होंने उस त्रिभुक्‍्न-

बन्दिता दिप नदीका दर्शन किया | इससे उन्हें बढ़ी

प्रसव्रता हुईं और यहाँ स्नान-दानादि करके उन्होंने महादेष-

जीकी आराधना की । कभी महिन न द्वोनेबाली कमत्ुभ्यौ-

की माहा, नाना प्रकारके फूल, अश्वतः षर, पुष्पदार्‌,

अनुलेपन, चन्दन, गन्ध, धूप, दीप्‌, नैः, ताम्बूल, दक्षिणा

और कपूरी आरती आदि पूजनसामपरी छेकर ये सब के-सब

महादेवजीकी सेवन उपस्थित दूए । उस समय अमृतकी

इच्छा रखनेवाल नागोने भगवान्‌ सियकी पूजा करके इस

प्रकार उनका स्तवन किया ।

नाग बोले--जितका ष्टी अन्त नहीं है, ऐसे नस-

स्वरूप शिवदो नमस्कार है । सर्वदेवमय रिव | आपको

बार-बार नमस्कार है । चन्द्रचूड ! जठाका मुकुट धारण करने-

बाले ! आपको नमस्कार है। दा्करा मन्‌ ! आपको नमस्झार है।

ख्यके साझी £ श्र ! आपको नमस्व्रार है। समस्त बीजोंकी

उन्पनिके छारणदृत महादेव ! आपको नमस्कार है । अमृतका

सोत वहावाले ईश्वर ! अपरो नमस्कार है। कमनीय

कामस्वरूप आपको नमस्कार है। सर्वबामवरपद ! आपको

नमस्कार दैं। शान्तस्वरूप शिवक्रों नमस्कार है । पशुओं

( अशानी जीवो ) फा पाछन ऋरनेयाले भगवान्‌ पशुपतिको

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