द # शरणं घज सर्चेश सृत्युंजयमुमापतिम् #
( श्चरो० १२३२ । १०१-१०३ )
पै तो पाप फरूँगा ही--ऐसी जिसकी बुद्धि है, उसके
खि पृथ्वी बहुत बढ़ी पढ़ी है। वह काशीति वार कहीं भी
जाकर सुखसे पाप कर सकता है। कामा,र शोनेपर भी
मनुध्य एक अपनी माताकों तो बचाता ही है । ऐसे ही पापी
मनुष्यो भी मोक्षार्थी होनेपर एक काशीकों तो बचाना
ही चाहिये । दूसरोंकी निन्दा करना जिनका स्वभाव है और
जो परख्लीफी इय्छा करते हैं, उनके छिये काशीमें रहना उचित
नहीं । कहाँ मोक्ष देनेवाडी काशी और कौ ऐसे नारकी
मनुष्य ! ओ प्रतिग्रहके द्वारा घनकी श्च्छा करते हैं और जे
कपट-आाछ फैल्मकर दूसरोंका धन हरण करना चाहते हैं, उन
मनुष्योंकों काशीमें नहीं रहना चाहिये। काशीमें रहकर ऐसा कोई
काम कभी नहीं करना चाहिये; जिससे दूसरेको पीड़ा हो । जिनको
यही करना हो, उन दुरात्माओंकों छाशीयाससे बया प्रयोजन है !
“विप्रवर | जो अर्थार्थी या कामार्थी हैं, उनको इस मुक्तिदायी
काशीक्षेत्रमें नदीं रहना चाहिये । जो शिवनिन्दामे और
येदकी निन्दा लगे रहते हैं तथा वेदाचारके बिपतीत आचरण
करते रै, उनको वाराणसीमें नहीं रहना चाहिये । जो दूसरोंसे
दोहद करते हैं; दूसरोंते डाह करते हैं और दूसरोंको कष्ट
पहुँचाते हैं, काशीमें उनको धिद्धि नहीं मिलती।!
भश्रषधानः पापात्मा नासख्िकोअफ़िल्नसंशायः ।
पञैते न तीर्थफछभारिनः ॥
(काझो० ६। ७५४ )
“अद्वादीन, पापात्मा ( तीर्थमें पापीकी--याप करनेयालेकी
शुद्धि होती है पर जिसका स्वभाव ही पापमय है, उस “पापात्मा
की नहीं होती ऊँ मासिक) सम्देइशील और हेठु वादी--शन
पॉचोंकों तीर्थफलद्धी प्राति नहीं होती ।›
र्तः तीर्यफा फछ किसको मिछता है --
( काशौ ७ ६ । ४९-७६ )
“जो प्रतिहते निकृत्त दै, जिस किसी स्थितम ष्टी रने
ओर अह्र भलीमोति छूटा हुआ है, यह तीर्थफलका भोग
करता है । जो दम्भ नहीं करता, सकाम कर्मका आरम्म नहीं
करत, स्वल्पाहार् करता है, इन्ड्रियोंको जीत चुका है और समस्त
आसक्तियोंसे भलीरमोति मुक्त दै, बह तीर्थकटका मोग करता
है। जो क्रोधरहित है; जिसकी बुद्धि निर्मल है, जो सत्यमाषण
करता है, हृदनिश्रयी है और समस्त प्रियो असने आत्माके
समान ही जानता है, वह तीर्थफल्का भोग करता है ।!
क्पोंकि--
ये शश्र चपक्तास्तथ्य॑ न बदुम्ति च खोखुपाः।
४ ॥
मरचैचछदृताशान्ताश्ुयस्तयक्तसत्कियाः ॥
तैषां मल्िनचिक्ानां फलमत्र मन जायते ॥
( ैष्णच० भदटि० ६ । ६९-७० )
भगयान् गङ्कर स्कन्दजीषे कहते हैं--
भो चश्चुदधि हैं, छोभी हैं और तथ्यदधी बात नहीं
कहते, जिनके मनभें परिद्वास, पर-घन और पर्रीफी
इच्छा है तथा जिनका कपटपूर्ण आबद ह, ओ दित ग्न
पहनते हैं, जो अशान्त, अपवि् ओर सत्क के त्यागी हैं, उन
मलिनिचित्त मनुष्योकों इस तीर्थम दोर् कल नहीं मिलता ।›
तीथोमें किस प्रकार रहना चाहिये, इसपर कहा गया है--
:॥
( भवन्तिकालन्ड ७। ३३-३३ )
“(इस क्षेत्रमें कस करनेयाले ) ममतारहित, अद्काररदि,
आसक्तिरह्टित, परिग्रहमें धुल्व, बन्धु वन्ध्यो स्नेह न रखने-
बाले। मिट्टी, पत्थर और सोनेमें समान श्रुद्धि रखनेवाडे, मन-
वाणी और शरीरके द्वारा किये जानेवाले बि बिभ कमोंसे सदा सब
प्राणियोंको अभय देनेवाले, सोखर और योगकी विधिको नने.
वाले, धर्मके स्वरूपक्ो समझनेवाड़े और संशय-सन््देहोंसे रहित हों |?
मानस तीयोंका वर्णन करते हुए यांत कड दिया गया है--
खणु तीर्थानि गदतो मानसानि ममानषे ।
वेषु सम्बकनरः स्नात्वा प्रयाति परमां गतिम् ॥
सत्य॑ तीर्थ क्षमा तीथं तोथंमिन्डियनिग्रह: ।
सर्वेभूतद॒या तीथं तो्माजंकमेव च ॥
दान॑ तीर्थ दम्भं सम्तोषस्तीर्थमुच्यते ।
अद्वयं परं तीं तीथं च प्रियवादिता ॥
शानं तीथं एतिखीथं तपस्तीय॑मुदाइतस ।
तीथोनामपि तत्तीर्थविद्युदिर्मनतसः परा ॥