रे ऋग्वेद संहिता भाग-१
१६९७. यत्ते सादे महसा शुकृतस्य पाष्ण्या वा कशया वा तुतोद् ।
सुचेव ता हविषो अध्वरेषु सर्वा ता ते ब्रह्मणा सूदयामि ॥१७॥
(हे यज्ञाग्नि रूप अश्च !) अतिशीघ्रता (जल्दबाजी) मे तुम्हें सताने वालों, निचले भाग को (हव्य को जल्दी
पचाने के लिए अग्नि के निचले भाग को कद कर्) पोड़ित करते वालो द्वारा कौ गयी सभी ज्रुटियों को (हम
पुरोहित) सुवा कौ आहुतियों (घृताहुतियों) से ठीक करते हैं ॥६७ ॥
१६९८. चतुस्त्रिशद्वाजिनो देवबन्धोर्वद्क्रीरश्वस्य स्वधितिः समेति ।
अच्छिद्रा गात्रा वयुना कृणोत परुष्परुरनुघुष्या वि शस्त ॥१८ ॥
है ऋत्विजो !धारण करने की सामर्थ्य से युक्त, गतिमान्, देवताओं के वन्धु इस अश्च (यज्ञ) के चौतीस
अंगों को अच्छी प्रकार प्राप्त करें (जानो ।हर अंग को अपने प्रयासो द्वारा स्वस्थ बनाएँ ओर उसकी कमियो
को दूर करें ॥१८ ॥
१६९९. एकस्त्वष्टरश्वस्या विशस्ता द्वा यन्तारा भवतस्तथ ऋतु: ।
या ते गात्राणामृतुथा कृणोमि ताता पिण्डानां प्र जुहोप्यग्नौ ॥१९ ॥
(काल विभाजन के क्रम में) त्वष्ट (सूर्य) रूपौ अश्र का विभाजन संवत्सर (वर्ष) करता है । उत्तरायण
तथा दक्षिणायन नाम से दो विभाग उसके नियन्ता होते ह । वह वसन्तादि दो-दो माह की ऋतुओं में विभक्त
होता है । यज्ञ मे शरीर के अलग-अलग अंगों की पुष्टि के निमित्त ऋतु संबंधी अनुकूल पदार्थों की आहुतियाँ
देते हैं ॥१९ ॥
१७००. मा त्वा तपत्प्रिय आत्मापियन्तं मा स्वधितिस्तन्व१ आ तिष्ठिपत्ते ।
मा ते गृध्नुरविशस्तातिहाय छिद्रा गात्राण्यसिना पिथू कः ॥२० ॥
हे अश्च (राष्ट्र अथवा यज्ञ) ! आपका परप प्रिय आत्म तत्त्व अर्धात् अपना गौरव कभी भौ पीड़ादायक स्थिति
में ख्रेड़कर न जाये (राष्ट्र का गौरव अक्षुण्ण रहे) । शस्त्र (बिखण्डित करने वाली शक्तियो) आपके अंग-अवयवों
पर अपना अधिकार न जमा सके (राष्ट्र कभी खण्डित न हो) । अकुशल व्यक्ति भो आपके दोषों के अतिरिक्त किसी
उपयोगी अंग पर असि (तलवार ) का प्रयोग न करे ॥२० ॥
१७०१. न वा उ एतन्श्रियसे न रिष्यसि देवाँ इदेषि पथिभिः सुगेभिः।
हरी ते युञ्जा पृषती अभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ॥२१॥
हे अश्व! ( यञ्च से उत्पन्न ऊर्जा) न तो आपका नाश होता है और न आप किसी को नष्ट करते है,
(वरन् आप) सुगम - सहज मार्ग से देवताओं तक पहुँचते हैं। शब्द करने वालों (मंत्रोच्चार करने वालो) के
आधार पर् वाजो (ऐश्वर्यथान) और हरि (अंतरिक्षीय गतिशौल प्रवाह) उपस्थित होकर, आपके साथ संयुक्त
होकर पुष्ट होते हैं ॥२१ ॥
१७०२. सुगव्यं नो वाजी स्वश्व्यं पुंसः पुत्रां उत विश्वापुषं रयिम्।
अनागास्त्वं नो अदितिः कृणोतु कषत्रं नो अश्वो वनतां हविष्मान् ।।२२ ॥
देवत्व को ग्राप्त करने वाला यह बलशाली (यज्ञीय प्रयोग ) हमें पुत्र. पौत्र, धन-धान्य तथा उत्तम अश्वों के रूप
में अपार वैभव प्रदान करे । हम दौनता, पाप कृत्यों एवं अपराधों से सर्देव दूर रहें । अश्च के समान शक्तिशाली
हमारे नागरिक पराक्रमी हो ॥२२ ॥