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सूर्येण वर्णन | [ ६५

` पर्याणिप्रत्यभिज्ञानात्‌ स्वे विस्मयमागताः}

नयं चन्द्रप्रभो नाम वाजीतस्य महात्मनः ।३

अगमद्रडवा रूपमुत्तमं केनु हेतुना ।

` तैतस्तु मैत्रावरुणि पप्रच्छुस्ते पुरोधसम्‌ ।४

क्रिमित्येतदभूच्चित्रंवदयोगविदाम्बर ! ।

वशिष्टश्चाव्रवीत्‌ सर्व हृष्ट्वा तद्धयानचक्षषा ।५

समयः गम्भरदयिताक्ृतः णरवणे पुरा ।

यः पुमान्‌ प्रविशेदत्र स नारीत्वमवाप्स्यति ।६

अग्रमश्वो5पि नारीत्वमगाद्राजा सहेवतु ।

पुनः पुरुषतामेति यथासौ धनदोपमः ।७

श्री पहि सूतजी ने कंहा-- इसके अनन्तर मन्‌ के पुत्र मातव उस

इल राजा के भाई लोग जन्र उसको लौटने में बहुत अधिक समय हो

गया तो उसकी खोज करते हुए इक्ष्वाक्‌ सथ उस शरवण नानकः वन

को गए थे ।१। इसके अनन्तर जैसे ही वे उस वन के समीप तक ही

पहुँचे थे कि उन्होंने सबने सामने स्थित बड़का को देखा था जो रत्नं!

के पर्याण (रन जटित जीव) को किरणों से परम दीप्त शरीर वाली

थी और अतीव उत्तम थी ।२। उसके पर्याण के प्रत्यभिज्ञान से वे सभी

लोग अत्यन्त विस्मित हो गये । इन्होंने समझ लिया था कि यह तो

उसी महात्मा इल राजा का चन्द्रप्रभ नामे वाला अण्य हैं ।३। किन्तु

क्या हेतु हो गया है-जिससे इस बड़वा का ऐसा अत्यृत्तम स्वरूप हो

गया है । इसके पश्चात्‌ मैत्रा वरुणिनामक अपने प्ररोहित से इस विषय

में पूछा था ।४। हे योग के ज्ञाताओं में परमश्वष्ठ ! आप हमको यह

बताइए कि यह एक विचित्र घटना क्या और कैसे हो गई है ? तब तो

महि वसिष्ट जी ने ध्यान के नेत्रों से यह सम्पूर्ण घटना को देख लिया

था-आौर उनसे ते फिर बोले थे ।५। प्राचीन समय में भगवान्‌ शम्भुको

दयिता उमा देवी ने इस शरवषा वन में प्रतिज्ञा की थी: कि जो कोई

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