१८० |] [ मत्स्य पुराण
कभी भी उपताप न देने वाला इस प्रकार की रहनी रहने वाला मुनि
जो नियत आहार करनेकी चेंष्टा रखते हुए वनमें निवास क्रिया करता
है वह परम मुख्य सिद्धि का लाभ लेता है ।४। जो किसी भी प्रकार के
शिल्प-कौशल से जीवन का यापन नहीं किया करता है तथा बिना गृह
वाला है--नित्य ही अपनी इन्द्रियों को जीतकर रखने वाला है. और
से प्रमुक्त अर्थात् बन्धन से रहित है--किसी भी ग्रह में शयन न करने
वाला तथा बहुत ही स्वल्प लिप्सा रखने वाला, एकही वस्त्र का धारी
और अनेक देशों मे विचरण करने वाला जो होता है वही भिक्षू
(संन्यासी) है ।५। जिस रात्रि से लोक अभिरत होते हैं तथा सुख से
काकाभिजित होते हैं विद्वान् परुष को उसी रात्रि में प्रयत्न करना
चाहिए कि वह प्रयत आत्मा वाला अरण्य में संस्थित रखने वाला होवे
।६। वह अरण्य में निवास करने वाला अपने शरीर की धातुओं को
अरण्य में हीः स्याग करके परम सुकृत को धारण किया करता है | वह
अपने से- पूर्व में हुए दश पुरुषों को और दश दूसरे ज्ञातियों को तथा
इक्कीसवां अपने आपको सभी का अपने तपोबल से उद्धार कर दिया
करता है ।७।
कति स्विद्द वमुनयो मौनानि कति चाप्युत ।
भवन्तीति तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छामहे वयम् ।८
अरण्ये बसतो यस्य ग्रामो भवति पृष्ठतः ।
ग्रामे वा बसतोऽरण्यं स मुनिः स्याज्जनाधिप ।&
कथं स्विद्रसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः ।
ग्रामे वा बसतोऽरण्यं कथं भवति पृष्ठतः ।१०
न ग्राम्यमुपयुञ्जोत य आरण्यो मुनिर्भवेत् ।
तथास्य बसतौऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्टतः । ११
अन ग्निर।नकेतश्चाप्यगोत्रचरणो मुनि: ।
कोपीकवाच्छादनं यावत्तावदिच्छेच्च चीरगम्र् ।१२