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१८ & श्री लिंग पुराण &

की कथा लेकर इस लिंग पुराण को बनाया। पुराण का

परिमाण तो सौ करोड़ श्लोकों का है परन्तु व्यास जी ने

संक्षेप में उनको चार लाख एलोकों में ही कहा है। व्यास

जी ने द्वापर के आदि में उसे अलग-अलग अठारह भागों

में विभाजित किया है। उनमें से यहां लिंग पुराण की

संख्या ग्यारह है, ऐसा मैंने व्यास जी से सुना है। उसे मैं

आप लोगों से अब संक्षेप में कहता हू ।

इस महापुराण में पहले सृष्टि की रचना प्रधानिक

रूप से तथा वैकृतिक रूप से वर्णन की गईं है तथा

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और ब्रह्माण्ड के आठ आवरण

कहे गये हैं। रजोगुण का आश्रय लेकर शर्व ( शिव )

की उत्पत्ति भी उसी ब्रह्माण्ड से ही हुईं है। विष्णु कहो

या कालरुद्र कहो वह उस ब्रह्मण्ड में ही शयन करते हैं।

इसके बाद प्रजापतियों का वर्णन, वाराह भगवान

द्वारा पृथ्वी का उद्धार, ब्रह्मा के दिन-रात का परिमाण

तथा आयु की गणना बताई हे । ब्रह्मा के वर्ष कल्प और

युग देवताओं के, मनुष्यों के तथा ध्रुव आदि वर्षों की

गणना हे । पित्रीश्वरों के वर्षों का वर्णन, चारों आश्रमो

के धर्म संसार की अभिवृद्धि, देवी का अविर्भाव कहा

गया है। स्त्री पुरुष के जोड़े के द्वारा ब्रह्म का सृष्टि

विधान, रोदानान्तर के बाद रुद्र के अष्टक का वर्णन,

ब्रह्मा-विष्णु का विवाद, पुनः लिंग रूप से शिव की

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