१०८ * संक्षिप्त ब्रह्मपुराण *
खहुंकार है। यह भन य, "नक उद ज्म कर उत्तम कर्म
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पततैकी भाति सारहीन है । दु ००५
अधिकता है । काम-क्रोध इसमें पूर्णरूपसे व्याप्त | क
हैं। इद्दियरूपौ भंवर और कीचड्के कारण ~$ | बल वि कण ७
दुस्तर है । नाना प्रकारके सैकड़ों रोग यहाँ ति जे आन
समान हैं। यह संसार पानीके बुलबुलेकी हट यम व नध
कषणभङ्गुर है । इसमें रहते हुए जो आपके मन | सजा स विस ०७५५५
बा दब ४ | होते थे। उन्होंने एक कुण्डल धारण कर रखा ती
सको तं तर साथ शै उनके हाथोंमें गदा और मूसल शोभा पाते थे।
वृक्षक शीतल छायामें हम दोनोंके साथ बैठिये। | कया और नर कि तो 9
ये भर साथी एक 08 शिरपी हैं। ये सब प्रकार | काका स्वरूप कि मा
शिल्प-कर्ममें साक्षात् विश्वकर्मके समान निपुण | ०9 सं भा के नेत्र कक
हैं। आप किनारा छोड़कर चले आहये। ये मेरे | समान नी
बताये अनुसार प्रतिमा तैयार कर देंगे। | समान व का न
रत सके पद परभ आज | . :क उपमा धारण करते थे। शरीरपर
तर: 29642" / 2७९ | पीताम्बर शोभा पा रहा था। वक्षःस्थले श्रीवत्सका
छायामें बैठे। तदनन्तर ब्राह्मणरूपधारी विश्वात्मा च
ह 6 का | सर्वपापहारी श्रीहरि बड़े दिव्य दिखायी देते थे।
दौ--' तुम प्रतिमा बनाओ। भगवान् श्रीकृष्णका रूप | ~ न् न
परम शान्त हो। उनके नेत्र पद्यपत्रके समान विशाल वी किक पीलक०नल
निः 3०“ रं भं समान विशाल थे। उनका अड्ग विचित्र वस्त्रसे
थ टन हू दग्धके | आच्छादित था। वे हार और केयूर आदि विचित्र
पतन जेल है। पडा सवथल जे पक आभूषणोंसे सुशोभित थीं। गलेमें रज्ञमय हार
समान गौरवर्ण हो। उसमें स्वस्तिकका चिह्न होना | न ०.
यहहिये। ये अपने ठम् इस कालय पिन हुए है, | लटक कम न
उनका नाम महाबली अनन्त (बलरामजी) [9 पीकर य
म की रबाक कक पर मामला
भी उनका अन्त नहीं जानते; इसलिये वे आह % भ क
अनन्त कहलाते है । तीसरी प्रतिमा भगवान् वासुदेवकी | 4 रभः को हब
क च वीना क्षणोंसे सम्पन्न थीं । उन्हें देखकर राजा अत्यन्त
सुवर्णक समान गौर एवं सुन्दर शोभासे युक्तं होना | धु त समा आाक
चाहिये। उनमें समस्त शुभ लक्षणोंका समावेश होना | न क
आवश्यक है ।' रूपमें साक्षात्