असमंजस कात्यागं | [ १५
तज्ज्ञात्वा भगवानौर्वेस्तत्रागच्छचट्च्छया ।
सम्यक् संभावितो राज्ञा तमुवाच त्वरान्वितः ॥४०
गर्भालाबुरयं राजन्न त्यक्त्. भवताहंति ।
पुत्राणां षष्टिसाहस्रवीजभ्रूतो यतस्तव ।\४१
तस्मात्तत्सकनीकृत्य घृतकु भेषु यत्नतः ।
निःक्षिप्य सपिधानेषु रक्षणीयं पृथक्पृथक् ॥४२
उन दोनों के गभं शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा के ही समान बढ़ गये थे ।
इससे माता-पित) को और पुरवासियों को भी बहुत अधिक सन्तोष हुआ
था ।३६। इसके अनन्तर जब गर्भ का पूरा समय सम्प्राप्त हो गया तो परम
शुभ मुह॒त्त में कोशिनो ने अपरिमित द्यूति से सम्पन्त अग्नि के गर्भ की
आभा वाले कुमार को जन्म ग्रहण कराया था ।३७। उस कुमार का जातकर्म
आदि संस्कार करके उसका विधि के साथ असमञ्जस नाम नुृ ने रक्खा
था ।३५। उसो समय में सुमति रानो ने भी एक गर्भ से अलावु को प्रसूत
किया था । उसको प्रसूत हुआ देखकर उसका त्याग कर देने का विचार
राजा के मन में हुआ था ।३8। किन्तु जब यह ज्ञात हुआ था कि राजा उस
अलावु का त्याग करना चाहता है तो भगवान् जौवं मुनि यहच्छा से ही
वहाँ पर समागत हो गये थे राजा सगर ने उनका भली भाँति स्वागत-
सत्कार किया था । तव बहुत ही णोध्रता से युक्त होकर मुनि ने राजा से
कहा--।४०। है राजन् ! आप इस गर्भ से निःसृत अलावु का त्याग करने के
योग्य नहीं हैं क्योंकि यह आपके साठ सहस्र पुत्रों का बीजभूत है ।४१। इस
कारण से इन सवको एकत्रित करके धृत के कलशो में यत्न पूरवंक ऊपर
कना लगाकर अलग-२ इनको रक्षा करनी चाहिए ।४२।
सम्यगेवं कृते राजन्भवतो मत्प्रसादतः ।
यथोक्तसंख्या पत्राणां भविष्यति ने संशय: ॥४३
काले पूर्णे ततः कुम्भान्भित्त्वा निर्याति ते पृथक् ।
एवं ते षष्टिसाहस्र पुत्राणां जायते नृप ॥४४
इत्युक्त वा भगवानौवंस्तत्रैवांतरधाद्धिभूः ।
राजा च तत्तया चक्र यथौर्वेण समीरितम् ॥४५
ततः संवत्सरे पूर्णे घृतकु भात्क्मेण ते ।