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* अष्टम स्कन्ध *
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सूतजी कहते हैं--शौनकादि ऋषियों ! जब राजा
परीक्षितने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे यह प्रश्न किया, तब
उन्होंने विष्णुभगवान्का वह चरित्र, जो उन्होंने मत्स्यावतार
धारण करके किया था, वर्णन किया॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं--परीक्षित् ! यों तो भगवान्
सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता,
साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षाके लिये शरीर धारण
किया करते हैं ॥ ५ ॥ वे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह
नीचे-ऊँचे, छोटे-बड़े सभी प्राणियॉर्में अन्तर्यामीरूपसे
लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत
गुणोंसे वे छोटे-बड़े वा ऊंचे-नीचे नहीं हो जाते । क्योंकि वे
वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित--निर्गुण हैं ॥ ६ ॥
परीक्षित् ! पिछले कल्पके अन्तर्मे ब्रह्माजीके सो जानेके
कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय
भूलें आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ॥ ७ ॥ प्रलय
काल आ जानेके कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे
सोना चाहते थे । उसौ समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े
और उनके पास हो रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने
उन्हें योगबलसे चुरा लिया ॥ ८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान्
श्रीहरिने दानवराज हयग्रीवकों यह चेष्टा जान ली ।
इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ॥ ९ ॥
परीक्षित् ! उस समय सत्यत्रत नामके एक बड़े उदार
एवं भगवत्परायण राजर्षि केबल जल पीकर तपस्या कर
रहे थे॥१०॥ वही सत्यत्रत वर्तमान महाकल्पे
विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धघेबके नामसे विख्यात हुए
और उन्हें भगवानने वैवस्वत मनु बना दिया ॥ ११५ ॥ एक
दिन वे राजर्षि कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे।
उसी समय उनकी अज्जलिके जलमें एक छोटी-सी मछली
आ गयी ॥ १२ ॥ परीक्षित् ! द्रविड देशके राजा सत्यत्रतने
अपनी अजलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ
ही फिरसे नदीमें डाल दिया॥ १३॥ उस मलीन
बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यत्रतसे
कहा--'राजन् ! आप बड़े दीनदयालु हैं। आप जानते ही
हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा
डालते हैं। मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रहौ हूँ।
आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यो छोड़ रहे
हैं 27 ॥ १४॥ राजा सत्यत्रतको इस बातका पता नहीं था
कि स्वय॑ भगवान् मुझपर प्रसत्न होकर कृपा करनेके लिये
मछलीके रूपमें पधार हैं। इसलिये उन्होंने उस मछलीकी
रक्षाका मन-ही-मन सड्डल्प किया॥ १५॥ राजा
सत्यत्रतने उख मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात
सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया
और अपने आश्रमपर ले आये ॥ १६ ॥ आश्रमपर लानेके
बाद एक रामे ही वह मछली ठस कमप्डलुपें इतनी बढ़
गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा । उस समय
मछलीने राजासे कहा--॥ १७॥ “अब तो इस
कमण्डलुमें मैं कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती; अतः मेरे
लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक
रह सकूँ' ॥ १८ ॥ राजा सत्यव्रतने मछलीकों कमष्डलुसे
निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटकेमें रख दिया।
परन्तु वहाँ डालनेपर वह मछली दो हौ घड़ीमें तीन हाथ
चद गवी॥१९॥ फिर उसने राजा सत्यत्रतसे
कहा--“राजन् ! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त
नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती। मैं तुम्हारो
शरणमें हूँ, इसलिये मेंरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान
मुझे दो'॥२०॥ परीक्षित् ¦ सत्यक्षतने वहाँसे उस
मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया। परन्तु वह
थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयो कि उसने एक महामत्स्यका
आकार धारण कर उस सगोवरके जलको घेर
लिया ॥ २१॥ और कहा--'राजन् ! मै जलचर प्राणी
हूँ। इस सरोवरका जल भी मेरे सुखपूर्वक रहनेके लिये
पर्याप्त नहीं । इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे
किसी अगाध सरोवरे रख दोजिये॥ २२॥
मत्स्यभगवानके इस प्रकार कहनेपर वै एक-एक करके
उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोमें ले गये; परन्तु जितना
बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते । अन्तमे
उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रे छोड दिया ॥ २३॥
समुद्रम डालते समय मतस्यभगवानूने सत्यत्रतसे
कहा--'बीर ! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते
हैं, ये मुझे खा जायैंगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें
पत छोड़िये' ॥ २४ ॥
मत्स्यभगवानकी यह मधुर वाणी सुनकर राजा
सत्यत्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा--'मत्स्यका
रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन